पत्र प्रशस्ति / सुनीता जैन

वे आए,
बैठे,
बोले
बातें की
चौबारों से
ऊँची,

चलने लगे तो
झोली भर-भर,
संग चले कुछ
पत्र-प्रशस्ति

खड़ी किनारे
सोच रही, क्यों
चल नहीं पाऊँ
सड़क मैं इतनी
सीधी? जो
अपने अलिंद से
चल कर,
रुकती अपनी
ड्योढ़ी?

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