पुत्री से / प्रतिभा सक्सेना

कुमकुम रंजित करतल की छाप अभी भी,
इन दीवारों से झाँक रही है घर में,
पुत्री तो बिदा हो गई लेकिन उसकी,
माया तो अब भी व्याप रही है घर में!

उसकी छाया आ डोल-डोल जाती है,
जब सावन के बादल नभ में घहराते,
कानों में मधु स्वर बोल- बोल जाती है
जब भी झूलों के गीत कान में आते!

कोई सुसवादु व्यंजन थाली में आता,
क्या पता, आज उसने क्या खाया होगा!
संकुचित वहाँ झिझकी सी रहती होगी,
उसका मन कोई जान न पाया होगा!

बेटी ससुराल गई पर उसकी यादें,
कितनी गहरी पैठी हैं माँ के मन में,
नन्हीं सी गुड़िया जिसको पाला पोसा
किस तरह बिदा हो गई पराये घर में!

अधिकार नहीं कोई, कुछ कह लूं सुन लूँ,
छू लूँ समेट लूँ ममता के अंचल में
कैसी बेबसी अभी तक सिर्फ़ हमीं थे,
अधिकार हीन हो गये एक ही पल में.

मन कैसा हो जाता आकुल भीगा-सा
सामने खड़ी हो जाती उसकी सूरत,
हो गई पराई कैसे, जिसे जनम से
निष्कलुष रखा जैसे गौरा की मूरत!

कर उसे याद मन व्याकुल सा हो जाता,
कितनी यादें उमड़ी आतीं अंतर में,
नन्हें कर-तल जब विकसे खिले कमल से,
बस दो थापें धर गये नयन को भरने!

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