बहुत उदास है विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन
कोई वादा मुकर गया है फिर
क़रीबे-मर्ग सा लगता है इंतज़ार मेरा
उम्मीद की आँखों में अब काजल कहाँ
एक आरज़ू जो पलकों से ‘पिन-अप’ कर दी थी
झुलस गई है कई रंगों में तक़सीम होकर
मेरे सामने लटका हुआ आकाश का टुकड़ा
हवा की सुखी हुई सतह पर तैर रहा है
मेरे चारसू फैली हुई दरख़्त की शाखें
मेरी सिम्त बढ़ रही हैं जकड़ लेने को
सुनहरी साँस भी सहमी-सी खड़ी है
सदियों से मुंतज़िर है ये जिस्म अकेला
बेचैन है रूह की सतरंगी परतें
तमन्ना टूट न जाये कहीं डर है मुझे
जान अटकी है लबों पर, आओ न…