झोंपड़ी के किसी कोने में
दीपशिखा-सी अडिग कोई आस्था
रोक पाएगी क्या
बढ़ते कदम तूफान के
बरुस के वृक्ष-सा
खिला हो कोई विशाल हृदय
मानवता का ध्वज फिराए
पर ओट कौन कर सकेगा
उसे ओलावृष्टि से
तपते समय में भी
शब्द देते रहते हैं
चाँदनी के विश्वास भरे न्यौते
रात दिन सुनाई देती हैं
दूर-दूर की सिसकियाँ
आँखों के सामने है महाभारत
अहर्निश
घायल समय के समाने
नत मस्तक हूँ मैं
कविता की तरह
समय की समझ भी अधूरी
बाँच लो लिपि को
पर रह जाता है
कितना कुछ अबूझ।