जब किया विश्वास से अनुबन्ध मैंने,
बन गयी हर शक्ति मेरी सहचरी है ।
जग भले कहता रहे, यह देह क्षर है,
किन्तु मेरी दृष्टि औरों से इतर है,
स्वार्थ पर प्रतिबन्ध जब मैंने लगाया,
काल ने मुझमें नवल उर्जा भरी है ।
प्राण-जागृति को पवन चलने लगा है,
टिमटिमाता दीप फिर जलने लगा है,
स्निग्धता छायी हुई वातावरण में
खिल उठी अन्तःकरण में मंजरी है ।
रश्मियाँ-ही रश्मियाँ हैं हर दिशा में,
इन्द्रधनु जैसे निकल आया निशा में,
चन्द्रिका से कब रखा सम्बन्ध मैंने ?
किन्तु छलकी जा रही मधुगागरी है ।।