इतना कुछ लायी हो
अंजुरियों में भरकर मेरे लिए
फिर भी कहूँ
हीरा जनम अमोल था
कौड़ी बदले जाय
तो बुरा मत मानना
इस गर्मी में
तरबूज खाने का
मन था मेरा
तरबूजे सी हँसी तुम
पेटेंट कर आयी
अब कॉलगेट की मुस्कान से
बहला रही हो मुझे
बेफिक्री की हँसी में
उड़ा रही हो मेरी बात
वैसे सुपर वूमेन का ताज पहने
जँच रही हो खूब
खुशनुमा धूप में पिघलकर
धरती कद आईना हो गई हो तुम
लेकिन प्यारी चंपा
तुम्हें लेकर अक्सर मैं
गहरी सोच में डूब जाती हूँ
आकाश गंगा में डुबकी लगाती
जब तुम समुद्री झाग
बन उफनने लगती हो
मैं डर जाती हूँ
नदी की उत्ताल लहरों पर दौड़ती
विज्ञापनों का इश्तहार बन
जब तुम सुदूर लोक में
चली जाती हो
मैं बेचैन हो जाती हूँ
तुम्हारे अनावृत
उन्नत उरोजों के खिले गुलाब से
महक रहा है विश्व बाजार
और मैं कुंठित हूँ
बहुत हद तक चिन्तित भी
कहीं गाय से
रेस की घोड़ी ’डोरा डंकन‘ बनाकर
वही पुराना घुड़सवार तो
नहीं कर रहा है
तुम्हारी पीठ पर सवारी?
ओ मेरी चंपा!