जाना चाहकर
मुमकिन होता जाना
छोड़कर यह शोक की उपत्यका
एक दिन सब कुछ राख हो जाएगी
जानने के बावजूद यह बात
शुरू करती हूँ एक नई कविता
प्रत्येक श्वास-नि:श्वास
प्रत्येक स्वप्न-आशा
समय के हाथों में सौंपकर
गुज़ारती हूँ शिला से भी सब्त रात
अत्यन्त जटिल है जीवन का गणित
घटाव जोड़ नहीं होता
जोड़ घटाव बनते जाते हैं
बनते जाते हैं
सूर्य के डूब जाने तक...
मूल असमिया से अनुवाद : दिनकर कुमार