Last modified on 14 अक्टूबर 2013, at 11:30

विसंगति / प्रताप सहगल

मेरी घड़ी में सिर्फ दिन बजते हैं
मैं हर दिन के साथ लम्बाकार हो जाता हूं
और धुआं खाकर
बसों के शोर में खो जाता हूं

1969