नहीं लुभा लेता है उर को ललित लयों से पूरित गान;
मोह नहीं मानस लेती है सरस कंठ की सुंदर तान।
अंतर धवनित नहीं होता है सुने स्वर्ग धवनिमय आलाप;
नहीं अल्प भी मुग्ध बनाता अति मंजुल स्वर-ताल-मिलाप।
मौन हो गयी मंजु मुरलिका, टूटे हैं सितार के तार;
बंद हुई-सी है दिखलाती बहती हुई सुधा की धार।
रही नहीं अब वह प्रफुल्लता, रहा नहीं अब वह उत्साह;
नहीं प्रवाहित हो पाता है अब उन में आनंद-प्रवाह।
छिन्न हुआ सुख-सूत्र हमारा, धु ला शांति-शिर का सिंदूर;
ज्ञान-नयन की जगतरंजिनी ज्योति हुई जाती है दूर।
हुआ भाल का अंक कलंकित बहु अनुकूल काल प्रतिकूल;
झोंक रही है चित-आकुलता भावुकता आँखों में धूल।
रहा नहीं अब हृदय वह हृदय, रुध्द हुई उन्नति की राह;
चाव हो गया चूर, किंतु चिंतित चित को है इतनी चाह।
होवे किसी मंजु वीणा की लोक-चकित-कर वह झंकार,
जिससे हो जावे भारत के जन-जन में जीवन-संचार।