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वीर-भारती / गुलाब खंडेलवाल


धौंस चढ़ा, पुट्ठे दिखा, आँखें खूब तरेर
जब तक सुप्त मृगेंद्र है, गीदड़ तू ही शेर
 
यह सँकरीला घाट है, दो असि एक न म्यान
आन धरो तो सिर नहीं, सिर जो धरो न आन
 
मरे न कविता रसमयी, मरे न सत्य विचार
रण में मरे न सूरमा, उठ-उठ करे हँकार
 
तन हारा फिर भी नहीं, मन ने मानी हार
शिरस्त्राण उतरा नहीं, सिर दे दिया उतार
 
प्रिय लौटे, रण से उठी, प्रिया समोद, सशंक
दृग-मुद्रण-मिस पृष्ठ लग, समुद लगी फिर अंक
 
प्राणान्तक पीड़ा हुई, मरने पर ही ज्ञात
पहले रण की बात की, पीछे व्रण की बात
 
समर-मरण फिर देश-हित, बोला वीर,-- 'न सोच
एक बार ही दे सका, प्राण, यही संकोच'
 
अंग-अंग छलनी बने, फिर भी रुकी न साँस
भौं में तेवर देखकर मृत्यु न आती पास
 
घर में बाँबी साँप की, छप्पर अग्नि-झकोर
शत्रु घुसे सीमान्त में, कब जागेगा और!
 
साधु न अहि पयपान से, मगर दिए उपवीत
नीति भेड़िये ने सुनी! ताड़न में ही जीत
 
रण-हिंसा हिंसा नहीं, वीर अहिंसा-धाम
गीता देकर कृष्ण ज्यों, सीता लेकर राम
 
धँसा पंक में, बिद्ध-शर, गरज रहा मृगराज
तिल भर दया न माँगता, क्षणिक देह के काज
 
मान गये सब कुछ गया, मान रहे सब शेष
मान सहस्रों मिट गये, मानी मिटा न लेश
 
जाति मर्त्य, कुल शूरता, साहस सहज स्वभाव
इसी खड्ग की धार के तीर हमारा गाँव
 
द्रोण, भीष्म, अर्जुन कहाँ! कहाँ कर्ण का गेह!
कीर्ति न मरती वीर की, मरती केवल देह
 
वे दिन गये कि सत्य की स्वयं मची जयकार
आज न्याय के हाथ में देनी है तलवार
 
फटा शीश, रण-मद हटा, भूल गया आलाप
भगा गजेन्द्र, मृगेंद्र की, पड़े एक ही थाप
 
बीच न टिकने की जगह, या इस या उस पार
सान धरो तलवार पर कि म्यान धरो तलवार
 
मेघ न सरित न सर यहाँ, उड़ती धू-धू रेत
पानी धन्य कृपाण का, सदा हरे हैं खेत
 
प्रिय का शंकित रण-गमन, देख प्रिया ने प्रात
पग-तल-विलुलित कच-सहित, सिर भेजा सौग़ात
 
रण-रव सुन बोली प्रिया, ग्रीवा फेर कृपाण
ऐसी लट का क्या करूँ कि लटका प्रिय का ध्यान
 
सुमन-सुमन सैनिक बने, पत्र-पत्र जय-केतु
कली-कली बिजली बने, वन की रक्षा-हेतु
 
ख्याति अहिंसा की इधर उधर जाति की लाज
भूखों मरे न तृण चरे वनवासी वनराज
 
गंगा बड़ी न गोमती, सरयू के भू-भाग
जहाँ गिरा सिर वीर का, तीरथ वही प्रयाग
 
फिरूँ न रण से, देश-हित शत जीवन दो, ईश!
वामन के-से चरण दो, रावण के-से शीश
 
'सिर काटे ही सिर रहे, सिर रक्खे सिर जाय'
जैसे कलम गुलाब की, बढ़े न अन्य उपाय
 
'ना' कह दिया न अर्ध थल, राणा की थी शान
हाथ जोड़ हाथी चढ़े, फिर भी मान अमान
 
प्रिये पत्र-परिरंभ लो नयन-अश्रु में बोर
अबकी होली और से, रंग और ही और
 
भ्रमवश छुए बिलाव के, केहरि-शिशु की मूँछ
गुर्राहट सुनकर भगे, स्वान दबाये पूँछ