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वृक्ष है छतनार / रमेश रंजक

गीत में गति
बँध नहीं पाती समय की
झूठ है रे !

यह शगूफ़ा है, तरल भ्रम सिर्फ़ उनका
छन्द से कतरा रहे हैं जो
दे नहीं पाए समय को एक कविता
रोज़ लिखते जा रहे हैं जो

कौन समझाए उन्हें हर-बार
काव्य असि है—
छन्द उसकी मूँठ है रे !

छन्द कहता है करो मंथन समय का
शब्द संचालन करो ऐसे
खान से निकला हुआ सोना
साफ़ होकर दमकता जैसे

शब्द पानीदार है तो
वृक्ष है छतनार
वर्ना ठूँठ है रे !