Last modified on 29 जुलाई 2009, at 20:59

वृन्द के दोहे / भाग ६

कछु कहि नीच न छेडिए, भले न वाको संग।
पाथर डारै कीच मैं, उछरि बिगारै अंग॥51॥

अपनी पहुँच बिचारि कै, करतब करिये दौर।
तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर॥52॥

बुरे लगत सिख के बचन, हिए बिचारो आप।
करुवे भेषज बिन पिये, मिटै न तन को ताप॥53॥

फेर न ह्वैहैं कपट सों, जो कीजै ब्यौपार।
जैसे हांडी काठ की, चढै न दूजी बार॥54॥

नैना देत बताय सब, हिय को हेत अहेत।
जैसे निरमल आरसी, भली-बुरी कहि देत॥55॥

अति परिचै ते होत है, अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी, चंदन देत जराय॥56॥

भले बुरे सब एक से, जौं लौं बोलत नाहिं।
जान परतु है काक पिक, रितु बसंत का माहिं॥57॥

सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय।
पवन जगावत आग कौं, दीपहिं देत बुझाय॥58॥

अति हठ मत कर हठ बढे, बात न करिहै कोय।
ज्यौं-ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं-त्यौं भारी होय॥59॥