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वेश्या का कुआँ / अनुराधा ओस

धरती अपनी पीठ पर
लिख रही थी
दुख की फेहरिस्त
आसमान प्रेम से ताक रहा था
 
उस दिन भीग गयी थी शहर की
काई लगी दीवारें
मिट्टी अपनी हथेलियों को
और नरम बना रही है
ताकि सोख लें कुछ और नमक

रक्त से सनी सड़कें वेदना से कांप रही थीं
कोई नया जन्म हुआ शायद
निरन्तर घूम रहें
अपने धुरी पर नक्षत्र

और वहीं से बदल
रहें हैं हमारा भाग्य

लोग उसे वेश्या कहते थे
नाम कुछ भी रहा होगा
खर्च करती थी स्वयं को
रोज एक सिक्के की तरह
बदले में भी मिलते थे
कुछ सिक्के

इन्ही सिक्कों में से कुछ सिक्के
सहेज रही थी
धरती का कर्ज उतारने के लिए

प्यासे गले को तर करने के लिए
एक दिन वही सिक्के गलने लगे
और बनवाया गया रम्मा

कुआँ और गहरा होने लगा
नक्काशीदार
सुंदर पत्थरों से जगमग

एक वैश्या के शरीर से उतरे
खनखनाते सिक्के
ढल रहे थे कुँओं की भीत पर

समाज की नजरों में
गिरी हुई औरत थी वो
न जाने कितनी दुआओं के बाद
जन्म लिया था उसने॥