भीड़ में घुसते हुए, मैं पूछता हूँ --
क्या तुम मेरी माँ हो ?
पूछता हूँ
किसी दरख़्त की पोखर
और आसमान में बिखरे परिन्दों से
जिह्वा के ऊपर
मेरी आँखें देख रही हैं बहुत ऊपर,
पुल गुज़र रहे हैं
मेरे हाथों के ऊपर से...
मैं एक कहानी के भीतर हूँ
कहानियों से बने हैं मेरे बाल
मैं जोर से दबाता हूँ अपना सीना
और पुरुषत्व पिघल आता है आँखों में
भीड़ में घुसते हुए, मैं पूछता हूँ
वे कहते हैं -- मेरी माँ होनी चाहिए थी
सन्तरे के एक छिलके की तरह
वे कहते हैं....