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वे जो साजिश रचते हैं / राकेश प्रियदर्शी


वे साज़िश रचते हैं हमारे ख़िलाफ़,
हमारे पंखों को दिन के उजाले में ही
कुतरते हैं धीरे-धीरे, इतने आत्मीय
ढंग से कि हम उनका स्नेह समझ के
रहते हैं मुग़ालते में

वे साज़िश रह-रह कर रचते हैं हमारे ख़िलाफ़,
हमारे बढ़ते क़दम को देख बिछाते हैं
रास्ते में इतने कांटे कि सिर्फ़ हमारे पाँव
में ही कांटे नहीं चुभते बल्कि हमारे
मन का हर कोना चुभन से करने लगता है चीत्कार

असह्य पीड़ा से फटने लगती है छाती,
तड़पने लगता है विश्वास, कराहने लगती है सहृदयता
और हमारी संवेदना घुट-घुटकर बहाने लगते हैं आंसू
वे रचते हैं हमारे ख़िलाफ़ साज़िश
और अपनी सफलता पर
मुस्कुराते हैं फीकी मुस्कान

हमारी नसों में अब बहने लगा है गर्म खून,
हमारे शब्द अब बनने लगे हैं आग,
ये आग जब फैलेगी तो जला देंगे उनके मंसूबे,
उनके दिए आंसू अब बनेंगे अंगारे