कहाँ गए वे दिन बुढ़िया बोल !
तब तू धारत ही या तन पै, सुन्दर रूप अतोल,
अब तो जंग जरा सी लागी, उड़ गयो जोबन-झोल।
श्वेत भए सारे कच कारे, पटके कलित कपोल,
भूल गए नैना कमनैती, झूल गए कुच गोल।
जिन पै वारत हे जीवन धन, मन की खिड़की खोल,
आज न ताकत तिन अंगन को, वे रसिया बिन मोल।
अब क्यों डगमगाति डोलति है, इत-उत डामाडोल,
सब तज भज ‘शंकर’ स्वामी को, पीट-प्रेम का ढोल।