वे निकले थे...
जैसे उखड़ता है कोई चिनार.
जड़ों की बांहों में भर कर
अपनी सारी मिट्टी.
और हाथ-पत्तों में भर कर
अपनी सारी छाँव.
वे निकले थे मध्यरात्रि को
सूर्य उनकी जेब में था
और चांद को वे
अपनी हथेलियों पर सजा रखे थे.
उनकी सांसों में थी
“घुफा-क्राल” की मिट्टी की महक.
और रक्त में थीं
“बुर्ज़हामा” की यादें.
वे निकले थे...
उन के मन में था शिव
और पीठ पर “हरिपर्वत”.
उनकी झोलियों में थे
नाग-पूजा के पुष्प
और आँखों में प्राचीन मन्दिर.
वे हो के आये थे
“करकोटा” के सभ्य शहर से.
वे निकले थे...
“ल्ल्ताद्तिया” था उन का आदर्श
और “अनन्ता” के चश्मे
उनके पाँव से फूटते थे.
उनकी ध्वनि में था
आचार्य आनन्द वर्धन
और शब्दों में
आचार्य अभिनवगुप्त
उन के सिर पर था
“कश्यप” का आशीर्वाद
वे निकले थे...
और उन ही के साथ निकले थे
फूल-शहर के रंग
फूल-शहर की खुशबूएं.
वे जहां जहां भी खीमें गाड़ते थे
वहां वहां बनती थी कश्मीर घाटी
क्योंकि वे स्वयं कश्मीरी थे.