Last modified on 8 अगस्त 2012, at 17:42

वैशाख की आँधी / अज्ञेय

नभ अन्तर्ज्योतित है पीत किसी आलोक से
बादल की काली गुदड़ी का मोती
टोह रही है बिजली ज्यों बरछी की नोक से।

कुछ जो घुमड़ रहा है क्षिति में
उसे नीम के झरते बौर रहे हैं टोक से;
'ठहरो-अभी झूम जाएगा अगजग
बरबस तीखे मद की झोंक से।'

हहर-हहर घहराया काला बद्दल
लेकिन पहले आया झक्कड़/जाने कहाँ-कहाँ की धूल का :
स्वर लाया सरसर पीपल का, मर्मर कछार के झाऊ का,
खड़खड़ पलास का, अमलतास का,
और झरा रेशम शिरीष के फूल का!

आयी पानी :
अरी धूल झगडै़ल, चढ़ी
पछवा के कन्धों पर तू थी इतराती,
ले काट चिकोटी अब भी :
बस एक स्नेह की बूँद और तू हुई पस्त-
पैरों में बिछ-बिछ जाती,
सोंधी महक उड़ाती!
सह सकें स्नेह, वह और रूप होते हैं, अरी अयानी!
नाच, नाच मन, मुदित, मस्त :
आया पानी!

दिल्ली, मई, 1956