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वो कसमसाता फूल—सा खिलता हुआ बदन / सुरेश चन्द्र शौक़

वो कसमसाता फूल—सा खिलता हुआ बदन

अब तक है लौह—ए—दिल पे मनक़्क़श तिरा बदन


दस्त—ए—ख़ुदा के फ़न की वो तख़लीक़—ए—शाहकार

वो हुस्न—ए—बेपनाह का पैकर तिरा बदन


जलवे बिखेरती हुई वो सूरत—ए— हसीं

नग़मे अलापता वो चहकता हुआ बदन


जादू—सा वो जगाती हुई चश्म—ए—सुर्मगीं

सरगोशियाँ —सी करता हुआ जोगिया बदन


होश—ओ—हवास उड़ाते हुए—से वो ख़ाल—ओ—ख़त

मय—सी उँडेलता हुआ वो रस भरा बदन


सोज़—ओ—गुदाज़,मस्ती—ओ—कैफ़ अंग—अंग में

क़ौस—ए—क़ुज़ा का लोच वो रंगों भरा बदन


अपने ही रूप से वो लजाती हुई नज़र

अपनी ही आँच से वो पिघलता हुआ बदन


ऐस मिला न होगा किसी दूसरे को हुस्न

ऐसा बना न होगा कोई दूसरा बदन


मेरे ख़्याल—ओ—ख़्वाब की दुनिया में हर घड़ी

रहता है जलवा —बार तिरा दिलरुबा बदन.

लौह—ए—दिल=दिल की तख़्ती; मनक़्क़श=चित्रित;दस्त—ए—ख़ुदा; ईश्चरीय हाथ; तख़लीक़—ए—शाहकार=सबसे बढ़िया रचना; चश्म—ए—सुर्मगीं=सुरमा लगी आँखें; सरगोशियाँ=दबी ज़बान में बात करना;क़ौस—ए—क़ुज़ा=इन्द्र धनुष;दिलरुबा= मनोहर