कोई बंद कपाटों से बतियाता
आहटों को धकियाता
आवाजों के कान बंद कर
शब्दों को बहलाता
निचाट अकेलेपन में
घावों को सहलाता
अश्रु तर्पण कर पूरी करता
स्मृतियों की बरसी का कर्मकाण्ड
अपने एकांत का पिंडदान
स्वयं ही पुरोहित...स्वयं ही यजमान
भ्रमित होकर देखता
बढ़े हुए साथ के हाथ
झटकता, झुठलाता
वर्तमान की रेत पर
अतीत की नमकीन लहरें
अधर की लाली को नीला करती
और कंठ स्वर को गरल
हृदय कब पथर हुआ
कि कोई मासूम बचा हुमकता है
लोरियों की चाह में, आलिंगन की रिक्तता लिए
शून्य की परिभाषाओं में उलझता
निर्वात गढ़ता
वो कितना अकेला है!