अपनी अँगूठी
कहीं रखकर भूल गई
भूल जाती है अक्सर
वो इन दिनों
दराज़ की चाबी कहीं
कभी गैस पर कड़ाही चढ़ाकर
कई बार तो
गाड़ी चलाते वक़्त
चौराहे पर रुककर सोचने लगती है
कि उसे जाना कहाँ था
वो भूलती है
बारिश में अलगनी से कपड़े उतारना
चाय में चीनी डालना
और अख़बार पढ़ना भी
आश्चर्य है
इन दिनों वो भूल गई है
बरसात में भीगना
तितलियों के पीछे भागना
काले मेघों से बतियाना और
पंछियों की मीठी बोली
दुहराना भी
मगर वो नहीं भूली
एक पल भी
वो बातें ,जो उसने की थी उससे
प्रेम में डूबकर
कभी नहीं भूलती वो
उन बातों का दर्द और दंश
जो उसी से मिला है
फ़रेब से उगा आया है
सीने में कोई नागफनी
वो नहीं भूलती
झूठी बातों का सिलसिला
सच सामने आने पर किया गया
घृणित पलटवार भी
घोर आश्चर्य है
कैसे वो भूल जाती है
हीरे की महँगी अँगूठी कहीं भी रखकर
कई बार तो ख़ुद को भी भुला दिया
मगर नहीं भूलती
मन के घाव किसी भी तरह।