एक कविता पढ़ रही हूँ।
उस युवा विद्रोही कवि की नए तेवर की कविता!
चार पृष्ठ लम्बी कविता के शुरुआती अंश मुझे समझ नहीं आए
मैने स्वयं को कोसा!
फिर मैने अंत से शुरुआत की
अंतिम पूरा पैरा पढ़ने के बाद भी दिमाग की बत्ती नहीं जली
अपनी भोथरी बुद्धि पर तरस खाते हुए
मैने पढ़ना स्थगित कर दिया।
कुछ दिन बाद वही कविता एक बड़े प्रख्यात नामचीन ब्लॉग पर पढ़ने मिली
एक नामी वरिष्ठ कवि की टिप्पणी थी-
इसे समझना आसान नही
सबके समझ आने वाली कविता नहीं है ये।
अपनी कुंद बुद्धि के प्रति उपजा मेरा क्रोध अब चरम पर था
मैने कवि महोदय को नमस्ते का संदेश भेजते हुए पूछा:
सर, उस कविता में छुपे अवयवों पर थोड़ा प्रकाश डालें
तो हम जैसों के ज्ञान का थोड़ा विकास हो
कवि महोदय ठठा पड़े-
अरे क्या खाक प्रकाश
मैं स्वयं आंखे मूंदे लाठी भांज कर निकल आया हूँ!