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व्यथा / संजीव कुमार

नव पल्लव
कुछ नया कहो अब,
सोच रहा हूँ
विकसित होऊँ।

तरुण पर्ण
कितना सोचोगे!
कुछ तो बोलो,
देख रहा हूँ
जग में कितनी उथल पुथल है!

जीर्ण पत्र
जाने वाले हो
जीवन संचय की मंजूषा
खोल लुटाओ अनुभव धन को
जान चुके की यही व्यथा है
बौने हाथों में मैं
कैसे रख दूँ?
भंगुर क्षण है।
भग्न हृदय है।