जीवन की यह बुझती बाती,
जलती कितना और जलाती!
बालकपन से यौवन तक,
यौवन से अंतिम क्षण तक
चलती कितना और थकाती!
वादों से परिहासों तक,
बिछुड़न से गम यादों तक
रुकती कितना और रुकाती!
आवरण से आचरण तक,
उलझन से निराकरण तक
रोती कितना और रुलाती!
इतिहासों से हासों तक,
भावों से विश्वासों तक
गिरती कितना और गिराती!
हर्षों से अवसादों तक,
दर्दों से मुस्कानों तक
जीती कितना और जिताती!
अपनी ही सीमाओं तक,
अपने ही आकारों तक
मिटती कितना और मिटाती!
जीवन की यह बुझती बाती,
जलती कितना और जलाती!