अभिमान,आत्माभिमान और स्वाभिमान
अंतर था इन शब्दों में
और साम्य इतना ही जितना कि
मन् धातु से घञ् प्रत्यय का योग
प्राय: होता यूँ है कि
कोई टिका रहता है मान पर
और कोई मन की धुरी पर
जबकि मान उस मन से परिधि तक की दूरी पर था।
यह अंतर समझ-समझ का ही तो है।
माना आत्मा निर्विकल्प है
द्वन्द्वाभिमान से परे
पर प्रेम भी निर्विकल्प
देह से परे
दोनों एकनिष्ठ और यूँ भव से परे।
मान , मानव का
मान मन का
न ! यह अभिमान नहीं
जानना! कुछ शब्द सरल होते हैं
इतने सरल कि उनकी व्युत्पत्तियाँ तक रेशम-सी होती हैं
मानना बात , इन शब्दों को नज़र के चश्मे से नहीं
मन की आँखों से पढ़ना
जो कभी पढ सको तो!
और महसूस करना देह पर सिहरन
जो कर सको तो!