शंकर -स्तवन-5
( छंद 157, 158)
(157)
जात जरे सब लोक बिलोकि तिलोचन सो बिषु लोकि लियो है।
पान कियो बिषु ,भूषन भो, करूनाबरूनालय साइँ-हियो है।।
मेरोइ फोरिबे जोगु कपारू, किधौं कछु काहूँ लखाइ दियो है।
काहे न कान करौ बिनती तुलसी कलिकाल बेहाल कियो है।।
(158)
खायो कालकुटु भयो अजर अमर तनु,
भवनु मसानु, गथ गाठरी गरदकी।
डमरू कपालु कर, भुषन कराल ब्याल,
बावरे बड़ेकी रीझ बाहन बरदकी।।
तुलसी बिसाल गोरे गात बिलसति भूति,
मानो हिमगिरि चारू चाँदनी सरदकी।
अर्थ-धर्म -काम-मोच्छ बसत बिलोकनिमें,
कासी करामाति जोगी जागति मरदकी।।