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शंकर -स्तवन / तुलसीदास/ पृष्ठ 3


शंकर -स्तवन-3

 ( छंद 153, 154)

(153)

नागो फिरै कहै मागनो देखि ‘न खाँगो कछू’ ,जनि मागिये थोरो।
राँकनि नाकप रीझि करै तुलसी जग जो जुरैं जाचक जीरो ।

नाक सँवारत आयो हौं नाकहि , नाहिं पिनाकिहि नेकु निहोरो।
 ब्रह्मा कहै, गिरिजा! सिखवो पति रावरो, दानि है बावरो भोरो।।

(154)

बिषु पावकु ब्याल कराल गरें, सरनागत तौ तिहुँ ताप न डाढ़े।
 भूत बेताल सखा, भव नामु दलै पलमें भवके भय गाढ़े।।

तुलसीसु दरिद्र -सिरोमनि , सो सुमिरें दुख-दारिद होहिं न ठाढ़े।
 भौन में भाँग, धतुरोई आँगन, नागेके आगें हैं मागने बाढ़े।।