शंकर -स्तवन-4
( छंद 155, 156)
(155)
सीस बसै बरदा, बदरानि, चढ्यो बरदा, धरन्यो बरदा है।
धाम धतूरो, बिभूतिको कूरो, निवासु जहाँ सब लै मरे दाहैं।।
ब्यली कपाली है ख्याली, चहूँ दिसि भाँगकी टाटिन्हके परदा है।
राँकसिरोमनि काकिनिभाग बिलोकत लोकप को करदा है।।
(156)
दानि जो चारि पदारथको, त्रिपुरारित्र तिहूँ पुरमें सिर टीको।
भोरो भलो, भले भायको भूखो, भलोई कियो सुमिरें तुलसीको।।
ता बिनु आसको दास भयो ,कबहूँ न मिट्यो लघु लालचु जीको।
साधो कहा करि साधन तैं, जो पै राधो नहीं पति पारबतीको।।