जब कभी हमें
किसी सवाल का जवाब मिलता सा लगता था
हम में से कोई खोल देता था दीवार पर लटकी
रोल की हुई पुरानी चीनी तस्वीर की रस्सी,
कि वो खुल जाती थी और
दिखने लगता था बेंच पर बैठा वो शख़्स, जिसे
शक ही शक था ।
मैं, कहता था वो हमसे
शक करनेवाला हूँ । मुझे शक है
कि वो काम हुआ कि नहीं, जिसमें तुम्हारा वक़्त गुज़र गया
जो कुछ तुमने कहा, अगर ठीक से न भी कहा गया होता,
क्या कुछ एक के लिए उसकी कोई क़ीमत होती ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि तुमने कहा तो ठीक से और
जो कुछ तुमने कहा उसकी सच्चाई को बस मान गए.
कहीं उसके कई मायने तो नहीं, हर गलतफ़हमी के लिए
ज़िम्मेदार तुम ही होगे. हाँ, वह कुछ ज़्यादा ही स्पष्ट हो सकता है
और विरोधाभास ग़ायब रह सकते हैं, क्या वह ज़्यादा ही स्पष्ट है ?
फिर जो कुछ तुम कहते हो, वह किसी काम का नहीं ।
तुम्हारी चीज़ बेजान है.
क्या तुम सचमुच घटना की धारा के साथ हो ? जो कुछ बनेगा
उस सबसे सहमत ? क्या तुम भी कुछ बनोगे ? कौन हो तुम ? किससे
मुख़ातिब हो तुम ? जो कुछ तुम कहते हो, उससे फ़ायदा किसको है ?
और साथ ही :
क्या वह संज़ीदा बने रहने देता है ? क्या उसे सुबह-सुबह
पढ़ा जा सकता है ?
क्या वह उससे जुड़ा है, जो पहले से था ?
क्या पहले कही गई बातों का
इस्तेमाल किया गया, कम से कम उन्हें काटा गया ?
क्या हर बात साबित की गई ?
तजुर्बों से ? कैसे तजुर्बे ?
लेकिन सबसे पहले
हमेशा हर बात से पहले : क्या करता है कोई
अगर उसे तुम्हारी बात पर यक़ीन हो ? सबसे पहले :
क्या करता है कोई ?
हम बन्द करते थे लपेटकर
पर्दे के उस नीले शख़्स को, ताकते थे एक-दूसरे का चेहरा और
जुट जाते थे फिर से
रचनाकाल : 1937
मूल जर्मन भाषा से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य