उस रोज मंदिर में
देवी माँ के समक्ष
भावविह्लल मैं
उन्हें अपने दुख दर्द
मान अपमान
विश्वास अविश्वास
आस निराश
सब भेंट कर देना चाहती थी
अनुरक्त नयन माँ के नयनों में ठहर गए
कुछ जाने पहचाने से लगे उनके नयन
जैसे वर्षों से परिचित हों
पहचानने का प्रयास किया
तो स्मरण हुआ
कि ये तो वही नयन हैं
जिन्हें मैं रोज़ आईने में देखती हूँ
ये मेरे ही नयन हैं..
बड़ा विचित्र अनुभव था
जैसे मैं स्वयं के सम्मुख
अपनी ही शरण में
खुद से ही साहस की गुहार कर रही थी
और मैंने स्वयं को इच्छित वरदान दिया
मेरी सारी शक्ति मैं ही हूँ
मैं ही देवी हूँ
मैं ही राधा हूँ
मैं ही चेतन हूँ
मेरी ही प्रतीक्षा में जय है
मेरी ही प्रतीक्षा में कृष्ण हैं
फिर भय कैसा
फिर विपदा क्या
मुस्कान भरी आश्वस्ति से माँ को प्रणाम किया
आज देवी माँ पर अपार श्रद्धा ही नही
अपूर्व प्रेम भी उमड़ आया