|
फूँस में सुइयों की तरह दफ़न
कितनी कविताएँ सोती हैं शब्दकोशों में
गुस्से के कसे हुए जालों में लिपटे हुए धरे
कितने कवि अभी पैदा नहीं हुए हैं
कितनी कोमल आत्मस्वीकृतियाँ
कितने अपमान
कितने सारे झूठ
और कौन से अनखोजे
मनुष्यहीन
रेगिस्तान ख़ामोशियों के