भावों की कड़ाही में
शब्दों के व्यंजन पकाती हूँ,
स्वादानुसार
थोड़ा नमकीन
थोड़ा तीखा
जिंदगी के मसाले बुरकती हूँ,
कभी धीमी
कभी मद्धिम
कभी ऊंची लौ पर
उसे सीझाती हूँ,
कड़ाही में कहीं चिपक ना जाए
बारंबार सरस हाथों से
छलनी चलाती हूँ,
उलट-पुलट कर
दोनों पलड़ों में
उसे तपाती हूँ,
फिर लाल मिर्च और जीरे से
घी के छौंक लगाती हूँ,
चखकर देखो तो ज़रा
बड़ी तन्मयता से
जिंदगी के तापित पत्तलों पर
विविध व्यंजन परोसती हूँ॥