धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं शब्द
धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं अलमारियाँ
सोचता हूँ-
एक दिन जब नहीं रहेंगी अलमारियाँ
तब कहाँ रहेंगे शब्द
कहाँ रहेगी पिता की उम्मीद
माँ के आँसू
पत्नी और बच्चों के सपनें
तब कहाँ रहेंगे
मैं देखने लगा हूँ दिन में भी बार-बार
शब्द और अलमारियों के खत्म होने का सपना
उस सपने में अचानक चले आते हैं पिता
अपने हाथ में अधजली पुस्तकें लेकर
धीरे से मेरी पीठ थपथपाते हुए कहते हैं-
यदि हो सके तो बेटा बचा लेना
दो-चार शब्दों के बीज
हो सके तो बचा लेना-
बाँझ होने से पृथ्वी
हो सके तो बचा लेना वे शब्द
जिनसे झरते रहें-
रिश्तों के छोटे-छोटे फल।