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शब्द के ऐश्वर्य में / लीलाधर मंडलोई

(दिनेश जुगरान के प्रति)

कहने को बाद मैं निःशब्‍द हुआ कि सामने था शब्‍द
अकूत क्षमताओं में भासमान
एक हिस्‍से में उजाला बोलता हंस-हंसकर
दूसरा अतल मौन में डूबा
कि लम्‍बी कथा में तब्‍दील हो आसमान हुआ
वहां रेशा-रेशा तराशता एक शख्‍स था बेचैन
लिख‍ता पत्‍थरों की देह पर आदिम अंधकार की समापन-धुन

प्रार्थनाओं से ताकता व्‍योम में अदृश्‍य गतियां
भर लेता अंक में असमाप्‍त पवित्र दृश्‍यालेख
छायाचित्रों से उठती घायल पंछियों की कराह
दम तोड़ती लगतीं चमकीले अंधकार के सन्‍नाटे में
कोठियों से उतरतीं जघन्‍य हंसी के ठीक नीचे
देख लेता पेड़ का चुपके से रो लेना

सुनता भविष्‍य के भय में
लावारिस घड़ी की खौफनाक टिक-टिक
मृत्‍यु के अंतिम पल की दस्‍तक में
जिस्‍म के लोहे को यकीन किए
अपनी परछाइयों को इतना कद देता
कि चांद के आंगन में छूता शब्‍दों को

मांगता सूरज से रोशन अहसास का सम्‍बल
या कि कहता समुद्र से संकल्‍प का आनंद दो
तोड़ता रहता स्थित हो अपने शिल्‍प के भीतर
काल से बाहर के अंतराल में निष्‍प्रभ चुप्‍पी
उसके विन्‍यास में है चीजों का छिपा खिल जाना
इस तरह होने में छिपी है शब्‍द की आभा
शरीर से बढ़ती परछाइयों के भय बीच
फिलवक्‍त शब्‍द के ऐश्‍वर्य में हूं आपादमस्‍तक

दुख मेरा काल के पीछे
कि कम-अज-कम कुछ आगे मैं आज और
देखो इधर एक चिडिया है जो उसके होने से
मेरी हड्डियों में दुबकी गुनगुनाए लोरी है