Last modified on 27 मई 2014, at 15:22

शब्द के ह्रदय में / पुष्पिता

आँखों के भीतर
नदी है
पलकें मूँदकर
नहाती हैं आँखें
दुनिया से थककर

ओठों के अंदर
वृंदावन है
चुप हो कर जीते हैं ओंठ
स्मृति सुगंध
तृषित होने पर

ह्रदय-धरा में
प्रणय-नियाग्रा
मेरे लिए झरता हुआ
लेकिन
तुम्हारे ही लिए

निर्झर को
'नियाग्रा' कहते हो
और मैं
तुम्हें

कल को
विहान पुकारते हो
और मैं
तुम्हें

वचन को
प्राण कहते हो
और मैं
तुम्हें

सुख को
मेरे नाम से जानते हो
और मैं
तुम्हें

सुख को तुम
मेरी हथेली मानते हो
और मैं
तुम्हें।