शब्द गर होता
तुम को दिखा देता मुझे
शब्द नहीं है यह
चिलमन है—चाहे जितनी झीनी—
जितना झलका दे तुम्हें
पर कभी देखने नहीं देती मुझे
पूरमपूर
मेरी कविता की कामना है जो
कामना ही रहती है सदा
लाली झलकती है जो
कविता के चेहरे पर मेरी
वह अपनी शर्मिन्दगी की है
—सुन्दरता की नहीं ।
—
31 जनवरी 2010