मैं जानता हूँ
घटिया है तुम्हारे लिए
मेरी कविता
क्योंकि वह तुम्हे असहज करती है
असुविधाजनक रूप से
समय असमय।
शब्दों की धार से
उधेड़ता रहा हूँ मैं
तुम्हारे प्रपंच और
तुम्हारे झूठ का
रेशा रेशा
बिना लाग लपेट के।
तुम्हे लगता है
अगर मुझे कहना भी था
यही सब
तो मैं कह सकता था
इशारों में
कुछ पोशीदा तरीके से
भारी भरकम शब्दों की ओट ले कर।
लिख सकता था
'सत्य का एक और पक्ष'
तुम्हारे साफ झूठ को,
संवेदनहीन निर्दयता को
लिख सकता था
'समय की आवश्यकता'
और यह भी कि तुम अपनी
निर्लज्ज लालसा की पूर्ति के
चरित्रहीन समय में भी
कर रहे थे
'मानवता की महान सेवा'।
मैं क्रूरता को पहना सकता था
सिद्धांत का चमकीला गाउन
और भूख को
सिद्ध कर सकता था
'त्याग का अनुपम उदाहरण'।
मैं कर सकता था इस्तेमाल
प्राचीन शब्दकोशों में दफ़्न
तमाम मुर्दा शब्दों का
अपनी कविता में
ताकि सारी मानसिक कलाबाजियों के बाद
सुरक्षित रहता तुम्हारे छद्म का भद्रालोक
और मेरी कविता भी बनी रहती कलात्मक।
पर मैने बेहतर समझा चुनना
उन सीधे सादे शब्दों को
जो घुस जाएं
एकदम ठीक जगह
ताबूत की कीलों की तरह
हथौड़े की चोट के साथ।
इसीलिए मैने झूठ के लिए
'झूठ' शब्द ही चुना और
हत्या के लिए 'हत्या' ही।