मेरे भीतर कोमल शब्दों की एक डायरी होगी जरूर
मेरी कविता में स्त्रियां बहुत हैं
मेरा मन स्त्री की तरह कोमल है
मुझसे संभव नहीं कठोरता
मैं नर्मगुदाज शब्दों से ढंका हूं
अगर सूरज भी हूं तो एकदम भोर का
और नमस्कार करता हूं अब भी झुककर
मैं न पूरी वर्णमाला याद रख पाता हूं
न व्याकरण
हर बार लौटता हूं और भूला हुआ याद आता है
ठोक-पीटकर जो गढ़ते हैं शब्द
मैं उनमें से नहीं हूं
मेरे भीतर शब्द बच्चों की तरह बड़े होते हैं
अपना-अपना घर बनाते हैं
कुछ गुस्से में छोड़कर घर से बाहर निकल जाते हैं
मुझे उनकी शैतानियों से कोफ्त नहीं होती
मैं उन्हें करता हूं प्यार
लौट आने के इंतजार में मेरी दोस्ती
कुछ और नए बच्चों से हो जाती है
घर छोड़कर गए शब्द जब युवा होके लौटते हैं
मैं अपने सफेद बालों से उन्हें खेलते देख
एक सुरमई भाषा को बनते हुए देखता हूं
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