शब्द-शर वाले धनुर्धर
गोद पाले हैं ।
शस्त्र-शैया पर अमर हम
गीत वाले हैं ।।
राग-रंजित रहे काया
रक्त अपना ही रचाया
समर में स्वाहा किया सब
पंचतत्वों को बचाया
प्रलय में नूतन सृजन के
बीज डाले हैं ।
दर्प को दे दिया दर्पण
फर्ज़ के आगे समर्पण
प्रण किया हमने पिता की
कामना का किया तर्पण
तब कहीं गंगाजली में
व्रण खंगाले हैं ।
नीति के नाते विनत हैं
क्या करें हम देवव्रत हैं
पारदर्शी हैं समय के
अन्धपन के मातहत हैं
द्रोपदी के आँसुओं से
तर दुशाले हैं ।
वार झेला मान जैसा
शत्रु है संतान जैसा
हाथ रिपुदल पर उठा है
विजय के वरदान जैसा
है सदा सद्भाव स्वर में
पाँव छाले हैं