शब्द ही तो थे
जिनसे जाना था
तूने मुझे मैंने तुझे
यह जानना
पहचान हो जाता
बंद कमरों से निकाल
तुझको और मुझको
रच गया होता सड़क
चलते-चलते
बुन ही लेता एक अलफी
तुझसे, फिर मुझसे ही
दुराहा घड़ लिए जाने से पहले
रु-ब-रु हो
आंखें फैंच कर ही उतार लेता चोला
तेरा और मेरा
फिर तो अलफी पहन
होना ही पड़ता तुझको और मुझको
हम.....केवल हम
जो देख लेते तुम
और मैं भी
कि जान लेने को
आकाश जैसी पहचान कर देने
जो आया तो दुभाशिये सा
तेरे और मेरे बीच
पर ठर पसर कर
हो गया वह सन्नाटा....सिर्फ सन्नाटा
सुनता गया है.....बोलते क्यों
बड़बड़ाते टसकते तक तुझे मुझे भी
निगला चाट तक गया है
बोला बोलना चाहा है
जो-जो भी
तूने मुझे मैंने तुझे
और-और अब तो कोरी निपट कोरी
आंख से ही देखता हूँ
मैं तुझे ऐसे ही तू मुझे
वह जो
पसवाड़े फिरती रही न लू
बलबलाती लू झपट्टामार
ले गई वह
मुझसे और तुझसे शब्द.....शब्द.....
जिनसे जाना था
मैंने तुझे तूने मुझे
मई’ 82