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शरदेॅ ठानी देलकै रार / कुमार संभव

शरदेॅ ठानी देलकै रार

सखी, कातिक में पियारो लागै
शरदोॅ के चन्द्र परकास,
हाँसै-बिहसै प्रीतम सें करै
गल्ला लिपटी हास-विलास।

अति नेह सें भरि-भरि केॅ
दीपक वारै, सेज सुधारै,
बलखाबै पतली कमर पर
घुँघट तानै, फेरू उघारै।

अगहन में मीठ्ठो लागै छै
पी के पल-पल करबोॅ प्यार
शरदें ठानी देलकै रार।

काम रस पिया लंपट खेलै
झपटी पकड़ै चुम्बन लै-लै,
रसिक अगहन के रात सखी
मन पावी सुख रास अघैलै।

पूसोॅ के पाला, सीते सताबै
रात-दिन कुहासोॅ हाथ नै सुझाबै,
सगरोॅ रात सखी, बस पी संग सुतौं
शरद शीत हमरा बड़ी सुहाबै।

रात भर काँपै शरद सखी
लागै छै ठारोॅ केॅ ठार
शरदें ठानी देलकै रार।

माघोॅ में ई बरसा के बून
लागै देहोॅ के जमलै सब खून,
माघोॅ के ठंडा विषम ई ऐन्हौं
पिया बिन लागै सब कुछ सून।

अजबे सन-सन हवा के झौंका
शरदें चाहै छोड़ौं नै कोनोॅ मौका,
कोठी में समाठ लै वेंगोॅ के चूरौं
लागै कहाँ कोनोॅ टोना-टोटका।

साझोॅ सेज पिया संग करबै
होबै शरदोॅ पर बलिहार,
शरदें ठानी देलकै रार।