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शरद की महिमा जान / हरिवंश प्रभात

शरद की महिमा जान निमंत्रण भेजा मैंने
पर, तुमको आने तक तो बरसात हो गयी।

बचपन से जो शब्द सहेजे थे चुन चुनकर
बासी फूल की भांति मुझे लगने लगते हैं,
पलक पांवड़े बिछे हुए तेरी राहों में
मेरे सपने कहाँ बचे गलने लगते हैं।

नभ की चाँदनी, तारों की बारात धूमिल
अब तो काले मेघ से श्यामली रात हो गयी।

वैसे सजने और संवरने में तुम हो माहिर
गीतों के मुखड़े जैसा बदन सुशोभित है,
रोक तुम्हें लेती होगी फूलों की डाली
बेसुध हैं तितलियाँ समां सुगंधित है।

पाँव महावर वाले धीमे चलते होंगे
मेहंदी की मुस्कान से जैसे बात हो गयी।

सोच समझकर शुभ अवसर रखा दिल ने
हर मुहूर्त तेरे आने में दक्ष कहाँ है?
यह बरसात का मौसम है बदनाम बहुत
यह अक्सर हर जगह कभी निष्पक्ष कहाँ है?

तेरी प्रतीक्षा करके अब तक थका नहीं हूँ
स्वाति बूंदें ज्यों मेरी सौगात हो गयी।