कौन पुरूष यह कुरूक्षेत्र में मृत्युअंकशायी-सा?
काल हिंडोले पर दोलायित अद्भुत विषपायी-सा।
रक्षित रहा कवच प्रण पहने जग की ज्वालाओं में,
बीता जीवन दग्ध, रंग की नीरस-शालाओं में।
रहे राजप्रासाद प्रेतवन सन्नाटे को धारे,
आत्मवंचना कर पीड़ाओं के सोपान सँवारे।
वीर धनंजय के तीरों पर देवव्रत हैं भारी,
शेष प्राण हैं प्रण से उन्नत मुत्युंजय वरधारी।
रक्त धर्म की धारा-सा पहले तन छोड़ चुका है,
पीड़ित होकर पंचभूत से नाता तोड़ चुका है,
किन्तु मोहवश प्राण अभी तक विलग न हो पाये हैं
गये असंख्य वेदनाओं से हरपल दुलराये हैं।
परितापों में एक-एक आँसू दिन-रात तचा है,
शुष्क मेघ से तप्त दृगों में कुछ भी नहीं बचा है।
" अरे भीष्म! तुम तो अजेय धरती के नर-नाहर हो,
होकर विवश बाण शय्या पर पड़े आज क्योंकर हो?
परिवर्तन के सबल करों में सब कुछ पड़ा हुआ है,
बहना उसे अवश्य धार में जो भी अड़ा हुआ है। "
" कौन पृष्ठ खारे अतीत के रह-रह खोल रहा है?
फिर-फिर मेरे मनाकाश पर क्योंकर डोल रहा है? "
मैं अम्बा प्रतिशोध पूर्ण कर फिर मिलने आयी हूँ,
नारी हूँ मैं अखिल सृष्टि के कण-कण में छायी हूँ
मेरे बिना वेग जीवन का क्षण भर बह न सका है,
मेरा कर अपमान चैन से कोई रह न सका है।
मैं ही हूँ वह शक्ति योग कर फिर वियोग देती हूँ,
देकर असह वियोग प्राण तक नर के हर लेती हूँ।
देव दनुज, गंधर्व, नाग, नर कोई सह न सका है,
सहता रहा एक तू हर पल अविरल कह न सका है।
जहाँ छलकता रहता हर क्षण पावन जीवन रस है।
वही मनुज तन सकल सृष्टि का अनुपम ज्योति कलश है;
किन्तु ज्योति का कहाँ समादर तुमने कभी किया है?
नेह दान को छोड़ खार उपहार अपार दिया है।
" अम्बे! अब क्या शेष रहा जो शान्ति भंग करती हो,
बचे हुये अन्तिम क्षण में भी क्यों भवभय भरती हो?
मृत्युंजय मैं सूर्य प्रतीक्षा कर ही प्राण तजूँगा,
तब तक यही बाण-शय्या पर हरि का भजन करूँगा।
नहीं-नहीं यह तो पश्चातापों के तीर प्रखर हैं,
तन-मन बिंधा हुआ है मेरा पीड़ित हृदयागर है।
कल्पों जैसा एक-एक क्षण जीवन बीत रहा है,
अगणित प्रश्नों की माला-सी धूम अतीत रहा है।
" कौन शिखरिदशना तन्वीश्यामा-सी यह छाया है?
केश राशि उन्मुक्त क्रोध से लिपटी या माया है।
भरी हुई है धुन्ध दृगों में कुछ न दृष्टि आता है,
आखिर तू है कौन बोल मुझसे न हिला जाता है? "
" मैं हूँ अर्जुन प्रिया, पितामह को प्रणाम करती हूँ,
देख, देख कर दशा वंश की मन में अति डरती हूँ।
कुरूकुल का अक्षयवट तृण-तृण होकर बिखर गया है,
शक्ति शिखर वसुधा पर गिरकर कैसा प्रसर गया है?
जिस कुल के रक्षार्थ युद्ध कर तुम कन्याएँ लाये,
जिसके लिये नियोग धर्म के ध्वज थे गये लगाये।
और दिव्य पुत्रों को तुमने था सहर्ष स्वीकारा,
स्वीकारा सर्वस्व; किन्तु निज प्रण को नहीं बिसारा।
जहाँ विशुद्ध वंश की लतिका रह न विशुद्ध सकी है,
आपद्धर्म मरूस्थल में रहती बस थकी-थकी है।
आप शक्तिवट से रक्षण में तत्पर रहे निरन्तर,
और आमरण धर्म निभाया अपना वचन निभाकर। "
" रक्षण करता रहा सदा मैं तेरा सत्य कथन है,
पर अधर्म सामने देखकर किया मौन धारण है।
माता और पिता की आज्ञा पर सदैव दृढ़ रहना,
क्षणिक भावनाओं के कारण पड़ा उम्रभर दहना।
एक धर्म की रक्षा से कितने अधर्म जागे हैं?
इसीलिए नैतिकता के खग जीवन से भागे हैं।
प्रायश्चित की प्रखर बह्नि में हरपल दग्ध रहा हूँ,
बिना घाट की धार जिन्दगी लिए विमुक्त बहा हूँ।
बूँद-बूँद शोणित से मेरे काल कराल कहेगा-
क्यों है शेष रह गया तन में क्या कुछ और बहेगा?
अभी प्रश्न पर प्रश्न खड़े हैं उत्तर शीश झुकाये
हाय! मृत्यु के हाथ अभी हैं नहीं प्राण तक आये।
पंचरत्न प्राणों के कर में लेकर मृत्यु हँसेगी-
मृत्युंजय! अब बोल जीवनी कब तक और चलेगी?
अस्थि मात्र यह तन बाणों की शय्या पर अवलम्बित
कैसे त्याग दिया धरती ने है मन मेरा चिन्तित? "
" पुत्री! एक नदी के दो तट सदा हुआ करते हैं,
धर्म अधर्म समान्तर जीवन में सुख-दुख भरते है।
जहाँ धर्म के लिए सघन सन्ताप रहा सहता हूँ,
वही अधर्माचरण देखकर तो भी चुप रहता हूँ।
धर्म अधर्म पिता माता की आज्ञा से बिसराकर,
पलन करता रहा आज तक जीवन दग्ध बनाकर।
काशिराज की कन्याओं का मैंने हरण किया था।
कैसा धर्म विरूद्ध घोर मैंने आचरण किया था।
और युगुल कन्याओं का बेमेल विवाह कराया,
सुधाकांक्षिणि कोमलंगियों को विषकुम्भ पिलाया,
अम्बा के उस साहस को मैं भूल नहीं पाया हूँ,
जिसके कारण शरशय्या पर मृत्यु निकट आया हूँ।
उसके नम्र निवेदन कोमल और वचन मर्मान्तक,
गूँज रहे हैं जीर्ण-शीर्ण मेरे उर अन्तर अब तक।
करता भी क्या विवश, बँधा निज प्रण से अकुलाता था,
होकर सर्वसमर्थ धर्म के भय से रूक जाता था।
निर्ममता से अपने को अपना ही मार रहा है,
अपने हाथों ही अपना कर नष्ट सिंगार रहा है,
दुर्बल मेरा मोह सृष्टि का कर संहार रहा है,
रक्त निमज्जित कुरूक्षेत्र मुझको धिक्कार रहा है।
अगर चाहता तो बलपूर्वक राज्य विभाजित करता,
कौरव पाण्डव अलग-अलग दो कुल संस्थापित करता,
किन्तु सोचता रहा अभी तो बालक हैं कुरूवंशी,
होकर प्रौढ़ रहेंगे मिलकर बजा चैन की वंशी।
किन्तु अधर्म-बुद्धि दुर्योधन बना रक्त का प्यासा,
पलट दिया उसने कुरूकुल के धर्म धैर्य का पासा।
व्यर्थ हो गयी घोर प्रतीक्षा कौरव पलट न पाये,
आये जब भी पास हमारे तब दुर्वचन सुनाये।
लोभ और तृष्णाओं ने मन बुद्धि भ्रमित कर डाली,
उन्नत होती हुई कुमति ने वंश बेलि क्षर डाली।
अस्त हो गये आशाओं के तारक मन अम्बर में
फँसी हुई है नाव राष्ट्र की प्रलयातुर सागर में।
अब पतवार भार केशव ही लेकर चल सकते हैं,
वे चाहे तो सकल सृष्टि की चाल बदल सकते हैं;
किन्तु सुदर्शन, चक्र सुदर्शन वाले क्या कुछ कम है?
उनकी ही यह सब लीला है वे निनान्त निर्भ्रम हैं।
वे धर्मज्ञ, धर्मधारी, धर्मस्वरूप पावन हैं,
उनकी अमित छविछटा से परिपूरित जड़ चेतन है।
उनके लिए सृजन, पालन, संहार मात्र क्रीड़ा है,
उनमें सुख-दुख, दंश-हास की कहीं न कुछ पीड़ा है।
वे अधर्म अपकार अमंगल का संहार करेंगे,
बढ़ता हुआ भार वसुधा का यथाशीघ्र हर लेंगे।
परिवर्तन का चक्रवात अब शीघ्र न रूक पायेगा,
दुराचरण अन्याय पाप सब भक्षण कर जायेगा।
खोले हुए काल मुख अपना अट्टहास करता है,
केशराशि पापों की सिर पर धरे मनुज डरता है।
मैं भी उसी काल के कर की चटनी हुआ पड़ा हूँ,
मृत्यु खड़ी है बाँह पसारे हठ पर किन्तु अड़ा हूँ।
हठ जीवन को खींच कहाँ से कहाँ आज ले आयी?
अरी कुमति! तूने इस मन में कैसी आग लगायी?
जिस शय्या की कोमलता का मैंने किया निरादर,
आज उसी के शाप फलित हो गये तीक्ष्ण शर बनकर।
अन्धकार के शासन ने अन्धेर मचाया भारी,
किन्तु आ गयी अब उसके भी मिट जाने की बारी।
तमःस्नात धृतराष्ट्र किस तरह अपना धर्म निभाता?
जो खुद था आलोक हीन वह क्या आलोक जगाता?
मैं भी दुखी हुआ हूँ सहचर बनकर तमीचरों का,
करता रहा विरोध हृदय के जाग्रत भाव वरों का। "
" अगर पितामह! आप चाहते तो लज्जा बच जाती,
पौत्रबधू सामने आपके यों अपमान न पाती।
धर्मरज्जु से बँधे विवश पति पाँचों देख रहे थे।
देख रही थी मैं सबको सब मुझको देख रहे थे,
किन्तु सभी अपनी जिह्वा पर ताला डाल चुके थे,
काष्ठ मूर्ति-से सभी स्वयं को जड़वत ढाल चुके थे।
अगर कहीं सुन आर्तनाद मोहन भी वहाँ न आते,
तो निर्वसन दर्शकर मेरा शायद पितर जुड़ाते।
बोलो-बोलो पूज्य पितामह! मौन हुए तुम क्योंकर?
क्योंकर नहीें कौरवों को तुम सके वहीं दण्डितकर?
रक्षण-भक्षण युगल धर्म यह कैसी विडंबना है?
देख रही हूँ जब से, कुल पर संकट जाल घना है।
कर्म, स्वभाव, काल सबको ही रहता पहचाने है,
अब तक ठाने रहे आप हठ, आज मृत्यु ठाने है।
प्रायश्चित के अश्रु सभी जब तक विसर्जित होंगे, ै
छूट वेदनाओं से जब तक प्राण न हर्षित होंगे। "
पटाक्षेप हो गया चेतना फिर से जाग पड़ी थी,
" अरे! द्रोपदी पुत्री शायद मेरे पास खड़ी थी।
व्यथा-कथा सुन कौन अभागों को प्रियत्व देता है?
स्वार्थसिद्धि तक ही यह जग अपनत्व तत्व देता है।
धूमिल होती हुई दृष्टि फिर भी अतीत दर्शित है,
प्रश्नों की वीथिका गतिमती क्षण-क्षण उत्कर्षित है। "
" कौन दृष्टि की धूमिल धारा में यह डोल रहा है?
क्षीणप्राय चेतना को क्यों रह-रह तोल रहा है?
कौन शुभ्रवसना प्रतिमाएँ शुभ शृंगार रहित है?
प्रखर धर्म दृग के आन्दोलित ज्वलित प्रश्न दोलित हैं। "
" पूज्य देवव्रत! अनुजवधू हम तुम्हें नमन करती हैं,
जीवन की अवरूद्ध धार-सी बस चिन्तन करती हैं।
हम दोनों को रूग्ण अनुज के हाथ सौंपकर बोलो-
तुम्हें क्या मिला मेरे स्वर्णिम स्वप्न दग्ध कर बोलो?
हाय! वासना की ज्वाला में किया भस्म निज तन मन,
दिया हमें वैधव्य सिसकता हुआ सुलगता जीवन।
अपहृत होकर हुई उपेक्षित मधुर भावनाएँ थीं,
कुरूकुल के रक्षार्थ नियोगित लज्जित अबलाएँ थीं।
पुत्रशोक ने हाय! हृदय को खण्ड-खण्ड कर डाला,
पीड़ाओ का क्रूर वंश पग-पग पर हमने पाला।
क्या-क्या नहीं सहा है हमने अपने जीवन पथ पर,
आँसू पीती रही सदा प्रासादों में घुट-घुटकर;
और तुम्हीं हो एकमात्र बस मूल हमारे दुख के,
धूमिल किया हमारा जीवन नष्ट किये दिन सुख के।
कहाँ विलय हो गया तुम्हारा घोष दिगन्त-प्रतापी?
कहाँ गया वह धनुष शक्ति जिसकी थी जग में व्यापी?
कहाँ सो गये तीर, देव भी जिनसे घबराते थे?
कहाँ गया वीरत्व धरा नभ जिससे भय खाते थे?
आज अजेय देह यह कैसी होकर निबल पड़ी है?
शक्तिहीन हो गया शक्तिधर गिनता घड़ी-घड़ी है। "
" क्षमा देवियों! क्षमा घोर अपराध क्षमा हो मेरा,
माता की आज्ञावश मैंने किया अधर्म घनेरा,
यद्यपि मेरे अपने मन का कोई दोष नहीं है
फिर भी है संलग्न भीष्म बिल्कुल निर्दोष नहीें है।
ज्ञातज्ञात अधर्म तीर बन मेरे चुभे हुए हैं,
जीवन की अनन्त पीड़ा के संकुल रूके हुए हैं।
क्षमारूपिणि! क्षमा मुझे कर देना यदि सम्भव हो
जीवन के इन अन्तक्षणों में दूर सकल भयभव हो।
अरे कहाँ खो गयी पुत्रियाँ मेरे चेतन-पट से,
अम्बालिका अम्बिका के स्वर आये थे आहट से। "
" कौन भद्र यह धूम्रराशि खण्डित करता आता है?
सहज सलोना-सा कुमार, रे! कहाँ इधर जाता है? "
" पूज्य पितामह! नमन, आपने शायद मुझे पुकारा,
मैं अभिमन्यु प्रपौत्र आपका प्रिय हिय खण्ड दुलारा।
मुझ निःशस्त्र वीर पर गिन-गिन सबने वार किये थे,
युद्ध नीति के नियम सभी ने मिल संहार दिये थे,
खड़े-खड़े सब रहे दृगों की ज्वारिल प्यास बुझाते
करते नहीं अगर हत्या तो सुख भी कभी न पाते।
मैंने तो रणमहायज्ञ में निज प्राणाहुति डाली,
गौरवपूर्ण वीर की पदवी इतिहासों में पाली,
और अगर मैं अस्त्र-शस्त्र अपने उस दिन पा जाता,
सैन्य सहित सब वीरों को यम धाम अवश्य पठाता;
किन्तु उसी दिन मेरे षोडस वर्ष समाप्त हुए थे,
इसीलिए घिरकर अधर्म से कालप्राप्त हुए थे।
हाय! महाभारत में छल-बल सबको मिला ठिकाना,
बन्धु बाँधवों ने खुद ही खुद को कर लिया निशाना।
पूज्य! आप विष की लपटों का नर्तन देख रहे हैं,
भीतर-बाहर घोर संकटों के शर नित्य सहे हैं।
जिसके जीवन में अनन्त खारों का भार भरा हो,
कैसे उसके उर-सरसी में भाव विदग्ध हरा हो?
अगर चाहते आप धर्म की दुर्गति कभी न होती,
हँसती लक्ष्मी आज हस्तिनापुर की, कभी न रोती,
हाय हाय कर रही धरा नभ थर-थर काँप रहा है।
घोर नाशलीला से यह जग कैसा हाँप रहा है?
देखो तो किस भाँति दग्ध दृग ऊपर तने हुए हैं
धरती के श्रंृगार सभी शोणित से सने हुए हैं?
हाय! पितामह! अब न धरा के दर्शन कर पाओगे
किन्तु दूर है व्योम देख लो वहीं कहीं जाओगे।
मैं तो चला समुन्नत होकर वीरोचित गौरव से,
शीघ्र आप भी आ जाओगे छूट घोर रौरव से।
" हे अभिमन्यु! हृदय के टुकड़े जो कह निकल गये हो।
पूर्ण सत्य कह गये वत्स! तुम होकर सफल गये हो।
जाओ मेरे लाल! समुज्ज्वल कीर्ति काल गायेगा,
भारतीय इतिहास निरन्तर तुमको दुलरायेगा। "
कौन पुरूष यह निशांक में लिपटा जाग रहा है?
मौन हृदय की भाषा में क्या किससे माँग रहा है
निद्राशील जगत है, पर यह शून्य निहार रहा है
पड़ा हुआ समरांगण में क्या सोच-विचार रहा है?
' अरे मृत्यु के पथिक! पंथ के चिन्तन में क्यों रत है?
स्ंात्रासक अतीत से आखिर होता क्यों न विरत है?
जीवन की धारा के तट दो धरा और अम्बर हैं,
इन दोनों के बीच जल रही प्राण-ज्योति अक्षर है।
धरा धैर्य गम्भीर और अम्बर है धर्म समुज्ज्वल,
दोनों के ही बीच सदा जीवन पाता है मंगल,
और इन्हीं से भटक मनुज आचरण क्षरण करता है
तो खुद ही दुख, द्वेष, क्लेश सविशेष वरण करता है।
" अरे! कौन तुम मनस्पटल पर नित्य उभरने वाले?
सुख-दुख दोनों से विरक्त अपनी गति के मतवाले।
जीवन शेष हुआ पर तेरा कथन न शेष हुआ है,
धर्म-अधर्म सभी में तेरा सहज प्रवेश हुआ है।
प्रश्नावली पूर्ण प्रस्तुत कर इच्छित उत्तर पा ले,
खड़ी विदावेला समक्ष, हम हैं अब चलने वाले।
" मैं हूँ नियति साथ जीवों के हरपल रहने वाली,
उसके धर्म-कर्म दोनों की करती हूँ रखवाली,
मैं क्या बोलूँ? कुन्ती माद्री का उर बोल रहा है,
अपनी अनगिन पीड़ा के पृष्ठों को खोल रहा है।
उन दोनों के हृदय धधकते रहे हाय! जीवनभर,
मनःशान्ति पा सकी न दोनों जीवन में हैं तिलभर।
रहे जानते आप पाण्डु का पाण्डुग्रस्त जीवन है
फिर भी करके ब्याह अधर्माचरण किया श्रीमन! है।
रोग और जीवन का भी क्या दुःखद संयोजन है,
दीपशिखा है एक तरफ आतुर पतंग-सा मन है।
रही ज्योति की स्वर्ण रश्मियाँ मात्र भव्य दर्शन को,
मिलन निषेध रहा करता धिक् यौवन धिक् जीवन को।
रहे देखते सुधाकलश को अधर नहीं छू पाये,
हाय! न जाने कौन शाप लेकर धरती पर आये?
कैसा जीवन मिला, जहाँ पर योग-वियोग जले हैं,
प्रतिबन्धों में कैद काल के हाथों गये छले हैं।
जीवन है पर जीवन की हर धार अग्निपायी है,
मन में पड़ी कामनाओं की लतिका मुरझायी है।
हाय! सुलगता हुआ व्यर्थ यह जीवन है धरती पर,
इससे तो क्षणभर जलकर मिट जाना है श्रेयस्कर।
होकर के सौभाग्यवती दुर्भाग्य रही ढोती है,
बाहर-बाहर हँसती पर भीतर-भीतर रोती है।
उठते हुए ज्वार उर के उर में ही रह जाते हैं
झुके दृगों से अनबोले ही आँसू बह जाते हैं।
पीड़ा की अप्सरा हृदय पर तीक्ष्ण वार करती है,
यौवन की मधुपुरी हाय! सब क्षार-क्षार करती है।
वनवासिन-सा दैन्यग्रस्त वह जीवन रही चलाती,
पीड़ाओं की परिभाषा ही मन को रही बताती।
पाण्डु लोक से छिपे वनों में जीवन बिता रहे थे,
घोर विवशताओं को अपनी जग से छिपा रहे थे,
हे गांगेय! तुम्हारे कारण दो जीवन झुलसे हैं,
कुरूकुल की छाया में आकर कभी न जो विलसे हैं।
रूग्ण और निर्वीय पुत्र क्यों मुझसे ब्याह दिया था?
एक नहीं दो-दो कन्याओं को दुख दान किया था।
फिर नियोग फिर-फिर नियोग यह कैसा योग बना है?
वीर वंश में सन्तति-संकट छाया रहा घना है? "
" ओ अनाम! अविराम आपका तिल-तिल सत्य कथन है,
कैसा है दिग्भा्रन्त सकल अविरल अशान्त जीवन है?
ममता दया और करूणा मुझमें भी रही निवस है,
किन्तु धर्म से बँधी हुई नीरस है और विवश है।
रहा जानता सब कुछ फिर भी कुछ भी कर न सका मैं,
मोह-निशा में फँसे न्याय की पीड़ा हर न सका मैं।
शेष कर्म भोगने हेतु ही मैं अब तक जीवित हूँ,
जूझ रहा हूँ सतत मृत्यु की पीड़ा से पीड़ित हूँ।
देना मुझको और दण्ड जो कुछ भी शेष रहा हो,
बह जाने दो उसे हृदय से जो अब तक न बहा हो;
सर्वमान्य है न्याय तुम्हारा जग के न्याय विधाता!
वही कर रहा है सचराचर जो कुछ तू करवाता।
मैं तृण हूँ, उठता-गिरता उड़ता प्रवाह में तेरे,
मेरे भाव-कुभाव-स्वभाव कहाँ हैं रंचक मेरे।
तू ही सर्वसमर्थ एक भूमा तू व्याप्त निखिल है,
ज्योतिष्मती छटा है तेरी सकल सृष्टि रश्मिल है।
तेरा इंगितमात्र कर रहा सर्जन और विसर्जन,
मृण्मय-चिन्मय का मनोज्ञ संगम है भू का जीवन।
सृष्टि शिरोमणि मनुज तुम्हारी सर्वोत्तम रचना है,
सृष्टिधर्म से समुद्भूत नर, नर से धर्म बना है।
विविध रूप धर धर्म सृष्टि का संचालन करता है,
आकर जीवन को पावन से भी पावन करता है।
श्रद्धा-प्रज्ञा भंग देखकर धर्म रूग्ण होता है,
धर्म रूग्ण होने पर जर्जर ज्ञान बहुत रोता है।
ज्ञान मुझे भी दिया आपने किन्तु धर्म जर्जर कर,
इसीलिए मैं रूक न सका कौरव-संरक्षण पथ पर। "
क्षत्रिय की प्रिय युद्धभूमि! तूने उपकार किया है,
ज्गत उपेक्षित देवव्रत को स्नेहिल अंक दिया है।
मैं तो मेरा पुत्र युद्धरत रहा सतत जीवन भर,
आज शान्ति पा रहा, देह नश्वर तुझको अर्पित कर।
सदा धधकते शोणित से तेरा अभिषेक किया है,
बार-बार अरिशीश काट तुझको उपहार दिया है;
किन्तु क्रोध की ज्वाला में कितने निर्दोष जले है?
उजड़े हुए सुहाग देख कब दृग में अश्रु ढले हैं।
सदियों की उन्नति क्षणभर में युद्ध निगल जाता है,
स्वर्ग समृद्ध धरित्री पर मरघट-सा ढल जाता है।
किन्तु युद्ध के बिना सन्तुलन कब हो सका धरा पर,
युद्ध धर्म की ज्योति जगाता सकल अधर्म मिटाकर।
युद्ध सृष्टि का घटक सूक्ष्म, संचालित ही रहता है,
पल प्रतिपल यह काल युद्ध के निर्झर-सा बहता है।
युद्ध हीन जीवन क्या जीवन मृतक समान बना है,
जहाँ समस्याओं का रहता सघन वितान तना है।
कैसा है यह संविधान? कैसी विचित्र माया है?
मुझ अज्ञानी का मन कुछ भी समझ नहीं पाया है। "
प्रथम प्रहर है, निशा मौन घन तम के उगल रही है,
यत्र-तत्र शब्दों के गुंजित खग दल निगल रही है।
जलती हुई मशालें मानो क्षीण चेतना-सी है,
लिपटी हुई सघन तम में निरूपाय वेदना-सी है।
राजवंश का खण्ड-खण्ड होकर तन पड़ा हुआ है,
भीगा हुआ रक्त से बिखरा यौवन पड़ा हुआ है।
चाट-चाटकर रक्त किलोलें करते उल्लू दल हैं,
सन्-सन् करती हुई मृत्यु भी घूम रही अविरल है।
देह-सीप को छोड़ प्राण के मोती खिसक रहे हैं,
बिखरे हुए सिरों पर तम के पाहुन सिसक रहे हैं।
मृत्यु-सर्पिणी जीवन-मणि को निगल अकाल रही है,
लूट प्राण-घन विकल मही को कर कंगाल रही है।
कौन धार में तम की अविचल पड़ा कराह रहा है?
शुष्क दृगों से देख काल की अपलक राह रहा है।
ऊपर शून्य अनन्त व्योम के दृग झिलमिला रहे हैं;
या धरती को देख-देख तारक खिलखिला रहे हैं।
घोर वेदना की शय्या तम की झीनी चादर है
सकल चेतना हीन अंग, पर जीवित चिन्तन वर है।
दिशा-दशा जीवन की फिर-फिर घूम-घूम आती हे,
अस्थिमात्र देवव्रत को रह-रह कर झुलसाती है।
" अरे कौन यह देवि पूर्णिमा का पट ओढ़ खड़ी है?
क्यों दृग से झर रही मौक्तिकों की अनमोल लड़ी है?
स्नेहांचले! मौन को तोड़ो दुखी हुई क्योंकर हो?
पुण्यात्मा हो कौन परम पावन हो दिव्याक्षर हो? "
" देवव्रत! मैं सत्यवती माता दुर्भाग्यवती हूँ,
पुत्र निरंकुश बना वंश में दुख की उद्गात्री हूँ।
सत्ता की लिप्सा ने जीवनधन को व्यर्थ किया था,
बाँध तुम्हें दृढ़ प्रण से मैंने घोर अनर्थ किया था।
पुत्र हीन हो तप्त हृदय ने तुम्हें बहुत समझाया,
किन्तु धर्म को छोड़ राजसिंहासन तुम्हें न भाया।
पुत्र! अगर मेरी आज्ञा का पालन तुम कर पाते,
तो हस्तिनापुरी में ऐसे दुर्दिन कभी न आते।
देख-देख यह महानाश छाती फटती जाती है,
पौत्र-प्रपौत्रों की हत्या से आत्मा अकुलाती है।
पुत्र! अगर तुम राजमुकुट को एक बार सह पाते,
तो न रक्त के पर्व भयंकर कुरूक्षेत्र में आते।
खुले व्योम के तले न तुम भी शरशय्या पर होते,
होकर अश्रु विहीन वंश के दृग भी कभी न रोते।
आज हस्तिनापुर की गोदी क्षण-क्षण उजड़ रही है,
मृत्यु-रूपसी निर्ममता से जीवन जकड़ रही है।
नारी का अपमान मान्य कुल में जब भी होता है,
तो वह कुल अभिशप्त तप्त होकर सदैव रोता है।
उन्नत होकर कलह शान्ति जीवन की हर लेती है,
असहनीय वेदना-गरल प्राणों में भर देती है।
मान यथोचित नारी का कुरूकुल भी कर न सका है।
संस्कारित आचरण सुधारस उर में भर न सका है,
इसीलिए अभिशप्त हो गया सारा का सारा कुल,
अट्टहास कर रहा घेरकर महा दुखों का संकुल।
कुरूकुल के आलोक शिखर आधार तुम्हीं थे अनुपम
नीति न्याय-अध्यात्म-धर्म-बल-विक्रम-प्रण के संगम।
किन्तु शक्ति का सदुपयोग घर में न कभी कर पाये;
जाने किस भय से जीवनभर रहे मौन अपनाये।
आज तुम्हारा मौन प्रबलरण का आह्वान बना है,
कुरूक्षेत्र ही नहीं राष्ट्रकुल लगता रक्तसना है।
खड्गधार पर खड़ा सकलकुल रक्तपिपासु बना है,
शून्य हो गया है विवेक अविवेक अखण्ड घना है।
धर्ममूर्त्ति कर्तव्यनिष्ठ बस पाण्डव शेष रहे हैं,
शेष पुत्र सब मृत्युधार में समझो पुत्र! बहे हैं।
देना शुभ आशीष पाण्डवों को, कुल हो अक्षर वर,
पालन करते रहें धर्म का अपने, वसुन्धरा पर। "
सत्यवती खो गयी कहीं रजनी में इतना कहकर,
चौंक उठे देवव्रत लेकिन हिल न सके थे तिलभर।
" माता! मुझ-सा कौन अभागा होगा सुत धरती पर,
इतना हूँ निरूपाय छू सका चरण न तेरे निज कर।
माता! तू पवित्रता में गंगा से भी बढ़कर है,
तेरी मधुर ममत्वधार चिरजीवी है अक्षर है।
माता! करना क्षमा मुझे मैं दीन-हीन बालक हूँ,
आज्ञा तेरी टाल शुष्क निज प्राण का अनुपालक हूँ।
माता! मेरी आज्ञा को स्वीकार अगर कर लेता
तुझको देता सुख अनन्त पर जगत मुझे दुख देता
दुख पाया है तूने तो मैंने भी गरल पिया है
सत्य कह रहा क्षण भी मैंने सुख से नहीं जिया है।
और आज भी स्वर्ग मोह बस पीड़ा भोग रहा हूँ,
प्राण उत्तरायण में छूटे चाह सुयोग रहा हूँ।
मृत्यु खड़ी है पास हमारे पर मैं भाग रहा हूँ,
सौम्य गोल में आये दिनमणि यह वर माँग रहा हूँ।
व्यर्थ विशेषण मृत्युंजय का मुझसे जुड़ा हुआ है,
जबकि मृत्यु की ओर प्रतिक्षण जीवन जुड़ा हुआ है।
टेर रही है मृत्यु हृदय की साँकल बजा रही है,
सुप्त अतीत, काल को मेरे क्षण-क्षण जगा रहा है।
" कौन मन्द शीतल फुहार इस ओर बढ़ी आती है,
छाये हुए सघन तम में शुचिता-सी लहराती है।
मेरे शुष्क दग्ध अंगों पर स्नेह सजाने वाली,
आखिर तुम हो कौन मौन अपनत्व जगाने वाली? "
" मैं गंगा हूँ पुत्र! तुम्हारे दर्शन को आयी हूँ,
दशा तुम्हारी देख आज मैं तो अति घबरायी हूँ।
पुत्र! एक प्रण-धर्म ओढ़ तुमने कर्तव्य निभाया,
कोई कुछ भी कहे जगत ने तुमसे गौरव पाया।
तुमने मेरा मान बढ़ाया अपना धर्म निभाकर
धन्य हो गयी है गंगा तुझ-सा सुत उपजाकर।
औरों के हित सदा जुटाता रहा सुखों के साधन,
किन्तु स्वयं के लिए कभी कुछ भी न किया मनभावन।
रक्षक सतत अखण्ड राष्ट्रª के भक्त वीर बलिदानी,
विश्वयुद्ध के नायक युग के अप्रमेय सेनानी।
हे इतिहासपुरूष! द्वापर के धैर्य धर्म अधिकारी।
देवभूमि पर तुमने ही ऊर्जा अभिनव संचारी।
तेरी उज्ज्वल धवल कीर्ति युग-युग तक जग गायेगा,
हो न महाभारत धरती पर सबको समझायेगा।
गर्व करेगी लहर-लहर गंगा तेरा वाचन कर,
पायेगी सन्तोष शान्ति माता तेरा वन्दन कर।
पुत्र! तुम्हारी तरह कठिन प्रण मैंने भी पाला था,
सौंप काल को सात पुत्र पत्थर उर पर डाला था।
माता के हित सुत से बढ़कर कहीं न कोई धन है,
सुत विहीन माता धरती पर सकल भाँति निर्धन है।
वचनबद्ध हो विवश पुत्र। निज दिये काल के मुख में,
रही डुबोती बार-बार मैं जीवन, सागर दुख में,
परमतत्त्व की धार वचन की सीमा तोड़ न पायी,
भीतर-भीतर रही सुलगती बाहर धधक न आयी;
किन्तु जन्म जब हुआ तुम्हारा फिर ममता ललचायी,
और भंग प्रण करने को दृढ़ बन्धन बनकर छायी,
प्रखर धर्म न मोह ध्वस्त कर सत्वर मुझे जगाया,
घिरते हुए हृदय के तम को क्षण में दूर भगाया।
पुत्रशोक को किन्तु तुम्हारे पिता नहीं सह पाये,
और तुम्हारी रक्षा को वह मेरे पीछे आये-
बोले-प्रिय! एक तो दीपक कुरूकुल का रहने दो,
मत अवरूद्ध करो इस कुल की धारा को बहने दो।
फिर क्या था मैं तुम्हें छोड़कर लीन हुई धारा में,
कभी नहीं बन सकी ज्योति मैं कुरूकुल की कारा में।
तेरे कारण ही शान्तनु ने सत्यवती को पाया,
भोगलिप्सु नृप ने तेरे जीवन को राख बनाया।
भाग्यवन्त नृप शान्तनु थे मैं तो दुर्भाग्यवती हूँ
लड़ते हुए मृत्यु से अष्टम सुत को देख रही हूँ।
वे दुधमुँहे अबोले भोले खोल नहीं दृग पाये,
एक-एक कर मैंने अपनी धारा बीच बहाये।
हाय धर्म! तूने मुझसे यह कैसी राह दिखायी?
मेरे ही पुत्रों ही हत्या मेरे हाथ करायी।
जलसमाधि शिशुओं की अब तक हृदय विदार रही है,
तब से अब तक धर्म और मुझको धिक्कार रही है।
मेरा नीर धरा का संचित गरल पिया करता है,
पतित-पावनी कहकर यह जग व्यंग्य किया करता है।
सहकर निज अपमान जगत को रहती दुलराती हूँ
अन्न धान्य संस्कृति मनोहरा की देती थाती हूँ।
कर अपना उत्सर्ग लोकहित बनी स्वर्गदाता हूँ,
मेरा शिशु है लोक और मैं अखिल लोक माता हूँ।
माता बनी जगत की मैं तो पहले माता बनकर,
किन्तु पिता बिन बने पितामह एक तुम्हीं धरती पर।
यद्यपि पुत्र और माता का जीवन एक सदृश है,
किन्तु प्रतिज्ञा के पालन में तेरा अधिक सुयश है।
पुत्र! तुम्हारे जीवन से मुझको अति हर्ष हुआ है,
भारतीय पावन संस्कृति का अति उत्कर्ष हुआ है।
धन्य-धन्य हे पुत्र! तुम्हारी सदा-सदा जय जय हो,
कीर्ति-कौमुदी प्रलयकाल तक उन्नत हो अक्षय हो।
तेरे पावन यश को मेरी लहर-लहर गायेगी,
धन्य-धन्य सुत कहकर श्रद्धा ज्योति जगमगायेगी।
नीरवता छा गयी भीष्म का कम्पित हृदय विकल था,
दृष्टि घुमाने लगे किन्तु हर एक प्रयास विफल था।
" माता! माता! ठहरो मैं प्यासा हूँ जीवनभर का,
नहीं पा सका तनिक नीर भी मैं प्रियत्व अक्षर का।
सूख-सूखकर मेरा मुख बन गया मरूस्थल-सा है,
किन्तु न मिली बूँद भी मुझको हृदय रहा जल-सा है।
स्नेहधार से आज हृदय की ज्वाला शीतल कर दो,
रीता हुआ प्राणघट मेरा निज ममत्व से भर दो।
किन्तु कामना मेरी शायद पूर्ण न हो पायेगी,
तू है निखिल लोक की माता अब न कभी आयेगी।
क्योंकि लोक का पालन करना तेरा धर्म बड़ा है,
मेरे तेरे बीच आज फिर उज्ज्वल धर्म खड़ा है।
मैया! तू भी जग में अपना पावन धर्म निभा ले,
वर्त्तमान कर भस्म भविष्यत उज्ज्वलपूर्ण बना ले।
जीवन-समिधा धर्म-यज्ञ में पड़ सुरम्य होती है,
करती हुई लोकहित जगती में प्रणम्य होती है।
कोटि कुम्भ पीयूष स्नेह पर तेरे न्यौछावर है,
तेरे चरणों के प्रताप की सत्ता अजर-अमर है।
माँ से उच्च पूज्यपद कोई दृष्टि नहीं आता है,
जिसकी छाया में त्रिलोक सुख-शान्ति अमित पाता है।
शान्त-निशान्त श्यामपट अपने मुख से हटा रहा है,
अरूण दृगंचल खोल तमिस्रा जग की घटा रहा है।
व्योमाम्बुधि में तारकदल अलसाकर डूब रहे हैं,
रजनी के श्रृ्रृृंगार सभी देखो तो बहे-बहे हैं।
तम-प्रकाश दोनों देखो कैसे संगमित हुए हैं,
निज अस्तित्व विसर्जित कर अभिनव से फलित हुए हैं।
धुलने लगा दिशा-मुख तम चरणों में लौट रहा है,
कुछ पल और ठहरने के हित पाँव पलोट रहा है।
और दिवाकर की रश्मिल सेना बढ़ती आती है,
स्वर्ण सुधा वसुधा के अंचल में भरती आती है।
धरती से अम्बर तक विस्तृत है अखण्ड नीरवता,
उषा-सुन्दरी के अंगों से झलक रही कोमलता।
रण की लाली और उषा की मिलकर प्रखर हुई है,
धरती के कण-कण में पड़कर लाली अमर हुई है।
रणचण्डी के अरूण अधर ज्वाला से जगे-जगे हैं,
मतवाली लाली से देखो कैसे रँगे-रँगे हैं?
किन्तु भीष्म के उर की लाली अब कुछ शेष नहीं है,
नीरवता है श्यामलता है और विशेष नहीं है।
क्षत्रिय ज्वाला सतत दग्ध रह गयी कहाँ उरपुर में?
सघन चल रहा है प्रायश्चित नीरव अन्तः-पुर में।
एक कामना शेष शीघ्र ही सूर्य उत्तरायण हो,
केशव हों सामने विसर्जन प्राणों का उस क्षण हो।
आखिर कब तक देह धर्म को और पड़ेगा ढोना?
सूना रहा सदा ही मेरे मन का कोना-कोना।
अन्तिम क्षण वेदनाविद्ध हैं आओ तो प्रभु! आओ,
तमःस्नात मन मन्दिर में दर्शन की ज्योति जगाओ।
रहा प्रतीक्षा ही करता पर तृप्ति नहीं मिल पायी,
स्नेह विहीन दिया की बाती है किसलिए जलायी?
एक बार प्रभु! अन्धकार को चीर प्रकाश सजा दो,
एक बार प्राणों में मेरे मुरली मधुर बजा दो।
एक बार खारे अतीत का कुल विस्मरण करा दो,
एक बार इन शुष्क दृगों में फिर प्रेमाश्रु बहा दो।
एक बार पद पंकज पाकर हृदय पवित्र सकल हो,
एक बार फिर प्राण कलश में रूपसुधा निर्मल हो,
एक बार वह रस छलका दो जिससे जग प्लावित है,
मिट जाये सब विरह-व्यथा जो अन्तस में नर्तित है। "
" विरह-व्यथा का हरण मरण के पहले हो न सकेगा,
अभी और कुछ क्षण तक तेरा शापित हृदय दहेगा।
तुम शापित हो भीष्म! तुम्हारा रोम-रोम शापित है,
मरूस्थलीय तुम्हारा जीवन कण-कण अनुतापित है।
औरों को देकर अशान्ति खुद शान्ति चाहने वाले,
पाओगे चिरशान्ति धैर्य को धरो न हो मतवाले। "
" कौन हृदय के शान्तिकुंज में बन अशान्ति उभरे तुम?
कोमलता में कटुता की सिकता से हो बिखरे तुम। "
" वाह! वाह! चिरपरिचित को भी अब तुम भूल रहे हो,
भूलो भी क्यों नहीं शुष्क सरिता के कूल रहे हो।
मैं अम्बा हूँ तीर-तीर पर तेरे खडी रही हूँ,
सजला होकर भी जीवन में तिलभर नहीं बही हूँ। "
" ओ माधुर्य शिखरिणी अम्बा! अपराजिता जगत की,
सूत्रसर्जिका मनुजसृष्टि की प्रियदर्शिनी विगत की।
तूने कर संकल्प पूर्ण कर शान्ति पूर्ण पा ली है,
तेरी प्रतिभा-प्रभा धरा पर अगणित गुणवाली है।
आज प्राण संकट में मुझको देख खिलखिला हँस ले,
परपीड़ा के मधुर स्वाद का चाहे जितना रस ले;
किन्तु नहीं इससे जीवन का अमरतघट पायेगी,
बाल सुलभ चंचलता में ही बीत उम्र जायेगी।
देखा है बस एक पक्ष ही तू ने नर जीवन का,
दुख का दुख ही वापस करना नहीं न्याय है मन का,
दुख पाकर भी जो औरों को सुख बाँटा करते हैं,
वे भविष्यत-कोष में अपने अमित रत्न भरते हैं।
करते हैं परमार्थ स्वार्थ की धरती से जो उठकर,
कालजयी होकर वे ही पाते हैं कीर्ति अनश्वर।
नदी धार की नहीं मात्र भू का कटान करती है
रचती है नवद्वीप, अन्न धन से जीवन भरती है।
देकर मधुरिम स्नेह जगत के दूषण हर लेती है,
न दिया है कहता जग फिर भी यह सब कुछ देती है।
संस्कृति को पाला है इसने भीषण गरल पचाकर,
इसीलिए माता कहता जग श्रद्धासुमन चढ़ाकर।
अम्बे! जीवन का अवलोकन ही सर्वांग पठन है,
एक पृष्ठ से नहीं ग्रन्थ का होता मूल्यांकन है।
संकीर्णता विसर्जित कर व्यापकता धारण कर लो,
मन की सघन वासनाओं का स्वयं निवारण कर लो। "
" हे धर्मज्ञ! धर्म का अपने मद न छोड़ पाये तुम,
इसीलिए इस महादशा में अन्तसमय आये तुम।
जितना सुन्दर ज्ञान और के लिए सदैव दिया है,
क्या उसका तृणभर भी पालन तुमने कभी किया है?
ढोता रहा व्यर्थ जो हठ पर हठ अपने जीवनभर,
अब भी वह उपदेश कर रहा मुझको जाने क्योंकर?
देवव्रत! उपदेश सदा सन्तों के प्रिय लगते हैं,
दुनियादारों के मुख से बस शान्ति भंग करते हैं।
कुरूकुल के रक्षण-विस्तारण के आधार तुम्हीं हो,
धवंस हो रहे विमल वंश के सिरजनहार तुम्हीं हो,
किन्तु अगर तुम दण्ड धर्म को निज कर में ले पाते,
तो इस सबल वंश पर संकट के घन कभी न आते।
बनती नहीं द्रौपदी भी सैरन्ध्री निज जीवन में,
और भटकते नहीं पंच पाण्डव भी विवश विजन में,
दुयोधन बाँधवों सहित उद्दण्ड नहीं हो पाता,
शकुनी का छल-कपट-तन्त्र क्यों पुत्रों को भटकाता?
क्योंकर होता कपटद्यूत क्यों वंश विभाजन होता?
क्यों होती निर्वसन द्रौपदी क्यों लज्जित होता?
व्यर्थ न जाता कभी शान्ति प्रस्ताव कृष्ण का पावन,
और न होता युद्ध, मृत्यु करती क्यों नंगा नर्तन?
डूब रक्त में कुरूक्षेत्र क्यों होता जग में निन्दित,
होकर अरूण अखण्डित धरती होती कभी न खण्डित;
किन्तु तुम्हारे एक मौन ने सबकुछ करवा डाला
भरतभूमि के सुधाकलश में भरी विषैली हाला।
आखिर किसके इंगित से सब सहन रहे करते तुम?
क्यों विराट विध्वंस-यज्ञ का सर्जन रहे करते तुम?
" अम्बे! क्यों जड़ता का फिर-फिर व्यर्थ वरण करती हो,
नीरस शिथिल वीण-तारों में विकल राग भरती हो?
तूने जीवन भर प्राणों में नूपुर मधुर बजाये,
किन्तु रहे मर्यादित मेरे प्राण धैर्य अपनाये।
एक ओर सूना-सा जीवन एक और कुल रक्षण,
आँगन में द्वेषाग्नि धधकती रही अखण्ड प्रतिक्षण।
एक ओर अधर्म उन्नत था एक ओर विद्वेषण,
शमन प्रयास गया सब निष्फल-निष्फल गया स्वरक्ष्रण।
हाय! धर्म का शान्तिदीप भी आशाहीन हुआ है,
होकर स्नेह विहीन क्षीण अति दीन-मलीन हुआ है।
फिर भी है विश्वास मुझे वह सतत अखण्ड रहेगा,
धर्मराज के संरक्षण में प्रखर प्रचण्ड रहेगा;
किन्तु तुम्हारा धर्म सुदृढ़ संकल्प मनोज्ञ करेगा,
अम्बे! तेरा नाम हमारे कारण अमर रहेगा। "
" घायल होती देह स्वस्थ होकर फिर सुख पाती है,
किन्तु विरह की व्यथा हृदय से कभी नहीं जाती है।
जीवन में अभाव जीवन का तुमने सतत सहा है,
प्रण की शिला तोड़कर फिर भी उर निर्झर न बहा है।
करके गुरु पर घात पूज्य गुरूता पर घात किया है,
महत ज्ञान परिणाम व्यर्थ कर तुमने सकल दिया है।
घोर मोह से ग्रसित हुआ जब अर्जुन रण प्रांगण में,
अस्त्र-शस्त्र सब त्याग लगा रोने शिशु-सा वह क्षण में।
देख स्वजन परिजन अपनापन मन में जाग उठा था,
रथ में रख गांडीव कृष्ण से आज्ञा माँग उठा था।
" केशव! मैं यह युद्ध कर सकूँ अब सामर्थ्य नहीं है,
करूँ वनगमन सत्वर लगता मुझको उचित यही है।
बन्धु-बान्धवों का शोणित बहता न देख पाऊँगा,
इन्हें मारकर कहो कौन से स्वर्ग पहुँच जाऊँगा?
अस्त्र-शस्त्र मैंने स्वधर्म कुल रक्षण हित पाये हैं,
आत्मध्वंस से तन-मन चिन्तित होकर अकुलाए हैं।
जिनके संरक्षण में पलकर हम सब बड़े हुए हैं,
हाय! उन्हीं के प्राण हरण हित रण में खड़े हुए हैं।
बुद्धि भ्रष्ट हो गयी सकल कुल मरने को आतुर है,
काल अग्नि में स्वयं अन्ध बन चला हस्तिनापुर है।
देखो केशव! गुरूजन परिजन अग्रज मूढ़ हुए हैं
वंश-ध्वंश के लिए सभी क्यों समरारूढ़ हुए हैं।
रोको! रोको! इन्हें ज्ञान की कुछ तो ज्योति जगाओ,
सघन तमिस्रा उर-अन्तर की कुछ तो दूर भगाओ।
माधव! देखो देशधर्म पर काली घटा घिरी है,
भ्रमित हो गयी है जाने क्यों निर्मल बुद्धि फिरी है;
पूरा का पूरा कुल ही रणयज्ञ हविष्य बना है,
आखिर किस कारण कुरूकुल का मौन भविष्य बना है?
अंग-अंग हो रहे शिथिल मैं खड़ा न रह पाऊँगा,
मुझे सम्हालो कृष्ण! नहीं तो अब मैं गिर जाऊँगा।
" अरे पार्थ! रण में आकर क्यों कायरता करते हो?
कौन धर्म? किसके कारण तुम शिशुओं से डरते हो?
धर्म-बन्धु! तुम नहीं धर्म का मर्म समझ पाये हो,
मात्र पढ़े हो, नहीं आचरण में विशेष लाये हो।
क्षत्रिय का है धर्म युद्ध करना सज समरांगण में,
रहते प्राण न झुके न जाये बनकर निबल शरण में।
रण में लड़ता हुआ वीर मरकर सदगति पाता है,
और भागता शस्त्र छोड़ वह कायर कहलाता है।
पार्थ! इस समय धर्म पंथ से क्यों विचलित होते हो?
अविच्छिन्न निज धर्म तत्त्व को किस कारण खोते हो?
होकर नष्ट यहाँ का सबकुछ पुनः यहीं मिलता है,
किन्तु धर्म मिट जाने पर फिर कभी नहीं मिलता है।
नष्ट करो अज्ञान-मोह जीवन का दुःखद सपना,
उठो धनुर्धर! धनुष उठाओ धर्म निभाओ अपना।
और अगर तुम बन्धु-धर्म से यों ही बँधे रहोगे;
जीवनभर अपमान अग्नि में जलते पड़े रहोगे।
कहाँ गया था धर्म भीम को जब विष दिया गया था?
फेंक नदी में बन्धु-धर्म को अन्धा किया गया था।
कहाँ गया था धर्म, द्रोपदी जब निर्वसन हुई थी?
तार-तार होकर कुल की मर्यादा दमन हुई थी।
कहाँ गया था धर्म, हुआ तब कपट द्यूत आयोजन?
छल से छीना राज, कोष, अधिकार दिया निष्कासन।
कहाँ गया था धर्म, वनों में जब तुम भटक रहे थे?
धर्म पालते हुए कौरवों को नित खटक रहे थे।
अरे! घोर अज्ञातवास की कर्कश कठिन कथाएँ,
भूल रहे क्यों पार्थ! सहीं तुमने अनगिन विपदाएँ?
भूल गये तुम धरा बिछाकर, नभ ओढ़ा करते थे,
भूल गये तुम कंद मूल फल से ही घट भरते थे,
शोषण करते रहे तुम्हारा जो निज धर्म भुलाकर,
आज उन्हीं के लिए जग रही तुममें करूणा क्योंकर?
जहाँ स्वार्थ के सिवा न कोई मुल्य बचे जीवन में,
नैतिकतापद-दलित पड़ी है ज्वलित वंश के वन में,
देखो पार्थ! रणस्थल में सब मृतक समान पड़े हैं,
यहाँ कहाँ कोई जीवित है, धोखे सदृश खड़े हैं?
मेरी सूक्ष्मशक्ति ने सबको चेतना हीन किया है,
भूमिभार हरने को केवल तुमको श्रेय दिया है।
मरजा जीता कभी न आत्मा अजर-अमर अविकारी,
नश्वर देहनाश से क्यों भयभीत हुए धनुधारी!
कर्त्तापन को त्याग धर्म का अपने पालन कर लो,
छोड़ो दुर्बल मोह आत्मपथ का अभिनन्दन कर लो,
देहधर्म बनता मिटता ही रहता है वसुधा पर
किन्तु जीव है अंश ब्रह्म का अमिट अनादि अनश्वर।
देखो सकल सृष्टि मुझमें करती प्रवेश जाती है,
नये रूप के साथ जन्म भी नित्य नया पाती है।
एक अकर्त्ता मैं ही कर्त्ता हूँ ब्रह्माण्ड सकल में,
मेरे सिवा कहीं कुछ भी भाषित न सबल-दुर्बल में।
उद्भव पालन और प्रलय सब मेरी ही माया है,
गो-गोचर मन की गति तक सब मेरी ही छाया है।
जो कुछ भी हो चुका, हो रहा और अभी जो होगा,
मेरी ही इच्छा है अर्जुन! वह अच्छा ही होगा।
अतः स्वयं की शक्ति और रणकौशल परम समझकर,
धर्मयुद्ध के लिए बढ़ो जगती के श्रेष्ठ धनुर्धर!
रणस्थली के कण-कण ने माधव उपदेश सुना था
किन्तु पार्थ के सिवा किसी ने उसको नहीं गुना था।
सेनापति अधर्म मण्डल के बनकर बधिर बने तुम,
सुनकर गीता ज्ञान मोह से फिर भी रहे सने तुम।
क्यों न उसी क्षण त्याग मोह मद धर्म शरण में आये?
क्योंकर बन पाषाण ज्ञान की गुरूता समझ न पाये?
हाय! बदलता कैसे पत्थर तो पत्थर होता है,
जब तक पिसता नहीं सघन जड़ता को ही ढोता है।
तुम तो हो जीवनारम्भ से पत्थर से भी पत्थर,
पिघले नहीं कभी करूणा से भरा नहीें उर-अन्तर।
एक कृष्ण क्या कोटि कृष्ण भी तुमको अगर पढ़ाते,
तो भी जाते हार पार वे तुमसे कभी न पाते।
मैंने तो संकल्प धर्म अपना कर पूर्ण लिया है,
शान्त किया प्रमिशोध हृदय को परम विराम दिया है;
किन्तु धर्म कुल के रक्षण का निभा न तुम पाये हो,
स्वयं ध्वस्त होकर भी कुल को बचा नहीं पाये हो।
सफल हुई मैं नारी होकर भी निज व्रत पालन में,
और हुए तुम असफल होकर पुरूष समर्थ सर्जन में,
एक सिथिल, दृढ़़ एक रहा संकल्प विकृति का फल है,
भीष्म! विरस ही रहा तुम्हारा जीवन विफल सकल है।
शक्ति-शौर्य का सिन्धु उफनता रहा सदा उर-अन्तर,
परिवर्तन का ज्वार किन्तु बन सका नहीं वसुधा पर। "
" अम्बे! तेरा बोध सृष्टि के लिए प्रबोध प्रचुर है,
और सबल संकल्प सफलता का श्रीमन्त्र मधुर है।
सुन-सुन भरता रहा अमर गीता को उर मन्दिर में,
किन्तु चिरत्व ढूँढ़ता ही रह गया समग्र अचिर में।
मिलता रहा निरन्तर पर पहचान नहीं मैं पाया,
श्यामलता जब हटी हृदय में तब वह श्याम समाया।
अब मुझको वह निर्विकार माधुर्य पूर्ण लगता है,
जो सबको सबमें रहकर चुपचाप ठगा करता है;
किन्तु वंश का ध्वंस तीर-सा उर में धँसा हुआ है,
निकल न पाया मन पीड़ा में ऐसा फँसा हुआ है। "
जाती हूँ मैं भीष्म! मृत्यु की मौन प्रतीक्षा कर लो,
स्वागत करो हृदय से, हँसकर शून्य अंक में भर लो। "
" अम्बे! तुने शून्य हृदय को और शून्य कर डाला,
जाते-जाते चुरा ले गयी उर का शेष उजाला।
तम से भीगे हुए हृदय में कुछ न दृष्टि आता है,
अन्धकार से घिरे शून्य में अब न रहा जाता है।
ओह अकिंचन वित्त! अकिंचन के अन्तस में आओ,
तृष्णाओं से बद्ध मनस को बन्धमुक्त बनाओ।
होकर विवश मौन हो जाये अब मैं वह आँधी हूँ,
माधव! करना क्षमा तुम्हारा भी मैं अपराधी हूँ,
निज प्रण रक्षण हेतु आपके प्रण को तुड़वा डाला,
मैं अजेय हूँ अन्त समय तक यही दम्भ बस पाला।
अब परन्तु तन, मन, धन, जीवन-सब कुछ हार रहा है,
वासुदेव! यह भीष्म अकिन्चन तुम्हें पुकार रहा है।