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शरीर / ज्योति शर्मा

शरीर मंदिर नहीं है
कि धो धोकर इसे रखूँ पवित्र
अपरस में रखूँ कोई छू न सके मुझे
शरीर किसी विचारधारा की प्रयोगशाला भी नहीं
कि पालूँ हृदय में चूहे और कहूँ दुनिया से
देखो इतने चूहे ख़ाकर चली मैं हज़ को
शरीर इतना निजी है कि इस पर
मंच से बात करना इसका अपमान करना है
इतना निजी है कि इसे किसी को भी दिखा देना
ऐसा है कि कोई दिखा दे किसी को भी सड़क पर
अपने मन का सबसे अंदरूनी कोना
मेरे शरीर पर न सरकार का न विचार का
न आधार कार्ड का न बीमा कंपनी का
न पिता का न प्रेमी का न पति का न पुत्र का
न सखी का न नबी का न ऋषि का न कवि का
किसी का अधिकार नहीं
शरीर के बारे में लिखना मेरे मन के बारे में
लिखने से ज़्यादा कठिन
क्योंकि मन गढ़ा गया है भाषा से
जबकि शरीर के बारे में लिखने के लिए
भाषा काम नहीं आती
लिखूँ अगर रक्तए हड्डीए त्वचाए खूनए रजए रोम
तो है क्या वह शब्द शब्द शब्द भाषा भाषा भाषा
क्या तुम पाँच दिन किसी घाव की तरह रिसते
भग लिए घूमती औरत के बारे में लिख सकते हो
न जी न तुम चाहे औरत को कि आदमी
औरत के शरीर के बारे में केवल बक सकते हो
निरी बकवास