सड़क से सागर तक
तनहाई में लिपटा हुआ शहर
तीखे शोरग़ुल में
डूबता उतराता है
भीड़ में रोज़
छिल जाते हैं तन मन
राह चलते अनायास
निगाहें टकराती हैं
और उग आते हैं
उपेक्षा और अपमान के अनगिनत कांटे
आख़िर कभी तो उतरेगा
पराएपन का केंचुल
और जागेगी मन में उम्मीद-
यह समुद्र मेरा है
यह सड़क मेरी है
यह भीड़ मेरी है
और भीड़ की हर आँख में
उभरता अक्स मेरा है