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शहर नया था / रुस्तम

 
शहर नया था, पर हमारी आत्माएँ पुरानी थीं। इसीलिए
शायद वह बहुत नया नहीं लगता था। वह अन्य शहरों की
तरह ही एक शहर था। तब भी हमने उसी में मन लगाने
का निश्चय किया। हमें लगा मरने के लिए यह शहर भी
बुरा नहीं था।

लेकिन मरना आसान नहीं था। मरने की प्रतीक्षा में एक-एक
दिन हमें जीना था। एक-एक दिन को पाटने का तरीका
सीखना था।

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पटने की बजाय दिन फट जाता था। उसे सिलने की
कोशिश में तरह-तरह के जुगाड़ हम करते थे। वह और
फट जाता था। फिर और भी। फटे हुए दिन को कितने
दिन हम लिए-लिए फिरते थे। मात्र एक दिन असंख्य दिनों
के आकार में बदल जाता था। मरने के दिन तक वही एक
दिन अपने पाँव फैलाए रहता था।

वैसा ही, अन्तिम क्षण तक, फटा हुआ।

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अन्तिम क्षण — वह भी फटा हुआ — जब आता था, दिन
को सिलने की हर कोशिश हम छोड़ चुके होते थे।

कभी नहीं भी।

सच तो यह था कि अन्तिम क्षण को भी हम सँवार लेना
चाहते थे। मरना चाहकर भी कितना कठिन था जीवन
को त्याग देना! किसी भी हालत में हम उसे पकड़े रहना
चाहते थे।

कभी नहीं भी।