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शहर में गोरैया / अमरेन्द्र

खिड़की के बाहर बैठी है सहमी एक गोरैया
देख रही है पूरब नभ में पुरबा को उघियाते
उसके संग में घोर घटा को पाँव पसारे आते
बढ़ी आ रही चुपके से, ज्यों, काली एक बिलैया ।

चोंच घुमा कर उसने देखा शीशे बन्द पड़े थे
बायें-दायें कहीं कोई दरवाजा नहीं खुला था
संगमरमर का शहर धूल-धक्कड़ में पुता-धुला था
वृक्ष जहाँ थे, वहीं पेड़ लोहे के कई खड़े थे ।

पुरबैया विकराल बाढ़-सी बढ़ी आ रही खलखल
मैं चुपके से उठा खोलने खिड़की हौलै-हौलै
इसके पहले तेज हवा आ कर मेरा घर तौले
और कहीं न हो जाए वह फुर्र आँखों से ओझल ।

खिड़की खुली, गोरैया घर में आई फुदकी, चहकी ।
घर की सहमी हवा गंध जूही की ले कर बहकी ।