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शहर में दोस्ती / भारतेन्दु प्रताप सिंह

शहर गुस्से में बड़बड़ा रहा है,
कि सुबह होते ही कही
हमारी तुम्हारी मुलाकात न हो जाय
कि कहीं तुम्हें याद न आ जाय
मेरा भूला हुआ चेहरा और
बिसरे हुए वह गीत, जिसे गाते हुए
हम शहर तक आये थे, साथ-साथ॥
शहर धमकियाँ देने लगा है,
कि दिन के उजाले में, तुम्हारी आँखें
फिर कहीं न देखने लगें धवल-उज्जवल
आकाश, सुनहरे सपने, सार्थक मंजिले,
वैसे भी सपने और ख्वाब देखने की
तुम्हारी पुरानी आदत है, जिसका ताना-बाना
बुनते, अपनी चादर छोड़ नंगे पाँव चलते
चले आये थे तुम॥
शहर की आँखों में खून उतर आया है
वह तुम्हारा गला घोंटना चाहता है,
तुम्हारी मुस्कराहट उसे अच्छी नहीं लगती
जो क्षण भर के लिए ही सही, दूर कर सकती है
बच्चों के सहमे मन से, आतंक का साया,
या ला सकती है उदास थके चेहरों पर
अपनेपन का सुकून,
मुझे अब भी याद है
तुम्हारे मुस्काने पर दिन में खिल उठी थी
रात की रानी और
रातों को उग आये थे कमल के फूल॥
शहर सनकी और हत्यारा हो गया है,
कि हमारी आंखे कही ढूँढ न लें
कदम-कदम पर टूटी बिखरी ज़िन्दगी के सपने,
हवाओं के साथ उड़़ते मन के गीत,
आवाज़ों में घुले-मिले ठहाके
और सांसों में बसा प्यार।
दोस्ती करोगे मुझसे
सच मानो बहुत मामूली बात है,
शायद तुम्हारे अगल-बगल
चलते हुए सपने की हँसी
तुम्हारे आस्तीन में छिपे हुए
जिन्दगी की धड़कन
और गोमती के पानी में झलकते
चाँदनी रात का चाँद,
सब वापस आ जाय एक साथ,
सच मानों मुझसे दोस्ती कर लो॥