सितम्बर में हम लौंटेंगे शहर
कैलेण्डर में बचे रहेंगे एक तिहाई पन्ने,
सीलन-भरी हवा तोड़ देगी उसे
जो चमकता है टहनियों पर
पीले धब्बों और छायाओं में ।
हम लौटेंगे शहर, उसी दिन
जिनकी इच्छा होगी हमें फ़ोन करेंगे
आप आ गए हैं ? हम भी यही हैं
और जो हमें फ़ोन नहीं करेंगे
क्रोध, आलस या किसी दूसरे कारण से
उन्हें हम फ़ोन करेंगे ।
हम लौटेंगे शहर-वक़्त आ गया है
किसी की रचनाओं का अनुवाद करने का,
लौटेंगे शहर और पूरे दिन
तंग करती रहेगी बारिश
और जेब में बचे नहीं होंगे पैसे ।
भाग-दौड़ को कोसने की आदत पड़ गई है
पर मुझे अच्छा लगता हे सोचना --
जल्द, साँझ को बातें हो सकेगी मित्रों से,
मौक़ा मिलेगा बेमक़सद इश्तिहार पढ़ने का ।
घर के पिछवाड़े के आँगन ख़ूबसूरत हैं
जैसे बैंगनी रंग के गलीचे ।
ख़ूबसूरत होती है नदी
जब लितेयनी पुल से कुछ क्षण के लिए
चमक उठता है जमा हुआ चेहरा
मुखौटे की तरह नेत्रहीन ।
हम लौटेंगे शहर -- इन्तज़ार कर रही हैं चिट्ठियाँ ।
लौटना होगा -- जूते छोटे पड़ रहे हैं,
ख़रीदना होगा बेटे के लिए ओवरकोट,
और पत्नी के लिए जुराबें,
सब काम तो पूरे हो नहीं पाएँगे
पर चलो आधे ही सही ।
अख़बारों पर भी नज़र फेरनी होगी --
क्या हो रहा है पूरब में
और क्या -- पश्चिम में,
सोचना होगा, ख़बरों पर ।
लौटेंगे शहर -- इन्तज़ार कर रही होगी
कहानी किसी के साहस की
कचोटती रहेगी जो हमारे अंत:करण को ।
पर, कहाँ है वह गरमियों का जंगल ?
कहाँ है वह घाटी
और कहाँ वे महकते झाड़ ?
ग़ायब हो गए हैं क्या ?
सान्त्वना नहीं मिल सकती इन शब्दों से --
अब वो ज़माना नहीं ।
सामान्य-सा यह दिन विदाई के दिन की तरह
धड़क रहा है भारी तनाव से ।
ठीक तभी
विपदाओं की तरह दरवाज़ा धकेलती
घुस आएँगी भीतर कविताएँ...
उन्हें डर नहीं लगता
शान्ति ? बिल्कुल नहीं,
उन्हें चाहिए शहर ।