भौतिकता की चकाचैंध में
लहराता है शहर हमारा
नैतिकता की बातें सुनकर
शरमाता है शहर हमारा।
बेाझ प्रदूषण का ढोता है-
गरल पी रहा, पिला रहा है।
घोर नरक को भी पछाड़ता
इठलाता है शहर हमारा।
युग के पेय, खाद्य सेवन कर,
बना सराय राजरोगों की।
डगर-डगर पर, बात-बात में,
गरमाता है शहर हमारा।
बना रहा व्यक्तिगत जिन्दगी
तोड़ रहा अपनों से अपने।
निगल-निगल कर मर्यादाएँ
सुख पाता है शहर हमारा।
बाहर से सु-वर्ण लगते सब
भीतर मानो काजल के गिरि,
धोखाधड़ी, मिलावट, ईर्ष्या,
बरसाता है शहर हमारा।